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________________ लोकवाद : विकास का सिद्धान्त / 191 है। जैन दर्शन द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु को स्वीकार करता है। प्रत्येक सत् वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक ही होती है। द्रव्य के बिना पर्याय का और पर्याय के बिना द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्यायाः द्रव्यवर्जिताः। क्व कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा / / द्रव्य और पर्याय में विचारगत भेद है / वस्तुनिष्ठ भेद नहीं है / आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में द्रव्य और पर्याय में अन्यत्व नाम का भेद है, पृथक्त्व नाम का भेद नहीं _ 'उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत्' जो वस्तु त्रयात्मक है वही सत् है वास्तविक है। भगवान् महावीर ने कहा-'उपन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवता ही विकास का आधार है। अकेली ध्रुवता कूटस्थ होती है। कूटस्थ में परिणाम (परिवर्तन) का अभाव होने से विकास की कल्पना ही असम्भव है। उत्पाद, व्यय आधार के बिना नहीं रह सकते / ध्रुवता उनका आधार बनती है। अतः विकास का आधार स्तम्भ वस्तु की त्रयात्मकता है। त्रिपदी के अभ्युपगम के बिना विकास की कल्पना आकाश-कुसुम के सदृश है। जैन इस त्रिपदी को विकास का मल सिद्धान्त मानता है। लोक की शाश्वतता द्रव्य के आधार पर है, अशाश्वतता पर्याय पर निर्भर है। द्रव्य लोकवाद का आधार बनता है। पर्याय सृष्टिवाद का। द्रव्य की अपेक्षा जैन का लोक शाश्वत है। पर्याय की अपेक्षा वह सृष्टिवादी भी है। ____ संक्षेप में, यह जगत् जीव और अजीव की सहस्थिति है। विस्तार में षड्द्रव्य इस विश्व विकास के निमित्तभूत है / षड्द्रव्य की स्वीकृति के बिना विकास की कल्पना अधूरी है। ये छहों मिलकर ही विकास की कल्पना में सम्पूर्णता का भाव अभिव्यंजित करते हैं / जीव और पुद्गल में गति स्थिति स्वत: है किन्तु उसमें अनन्य सहायक द्रव्य धर्म एवं अधर्म है उनके बिना वे गतिशील नहीं रह सकते हैं तथा स्थिति को भी प्राप्त नहीं कर सकते / आकाश के अतिरिक्त पदार्थ अवगाह्य है / आकाश अवकाश प्रदाता है एवं स्वाश्रित है। यदि आकाश को स्वीकार नहीं किया जाए तो पदार्थ रहते कहां? काल पदार्थों के परिवर्तन का हेत बनता है। वर्तना लक्षणा वाला काल पदार्थों को स्वसत्तानुभूति करवाने में सहायक है। काल की स्वीकृति के बिना पदार्थों में परिवर्तन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। ज्ञानात्मक चेतना जीव का अविनाभावी लक्षण है। अवशिष्ट जो विकास है उसका केन्द्र बिन्दु पुद्गल है / पर्याय स्वभाव एवं विभाव
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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