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________________ जैन व्याख्या पद्धति : एक अनुशालीन जैन आगम साहित्य में ‘अनुयोग द्वार' एक महत्त्वपूर्ण विषय है। किसी भी सूत्र की व्याख्या पद्धति में सबसे पहले अनुयोग का उपयोग किया जाता है। अनुयोगद्वार का निरूपण आगम साहित्य का प्राचीनतम भाग है। प्रथम भद्रबाहु, जिनको नियुक्तिकार माना जाता है, उनके द्वारा कृत अनुयोगद्वार प्राचीनतम है। जैन व्याख्या पद्धति का नाम अनुयोगद्वार है / हम प्राचीन भारतीय साहित्य का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि प्रायः सभी परम्पराओं में सूत्र का निरूपण कैसे करना चाहिए इसका निर्देश प्राप्त होता है / आर्य परम्पराओं की एक शाखा जरथोस्थियन की ओर दृष्टिपात करते हैं तब उसमें भी पवित्र माने जाने वाले 'अवेस्ता' आदि ग्रन्थों का प्रथम शुद्ध उच्चारण कैसे करना, किस तरह पद आदि का विभाग करना इस रूप में व्याख्यान पद्धति का उल्लेख प्राप्त होता है। वैदिक परम्पराओं में भी अर्थविधि बतलाई गई है। सर्वप्रथम वैदिक मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण, पदच्छेद; पदार्थज्ञान इस प्रकार क्रमशः अर्थज्ञान किया जाता है / जैन परम्पराओं में भी सूत्र की व्याख्या कैसे होनी चाहिए इसका निर्देश उपलब्ध है। निम्न कारिका से यह आशय स्पष्ट हो रहा संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः / चालना प्रत्यवस्थानञ्च व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा / / - जैन परम्परा में सूत्र और अर्थ सिखाने के सम्बन्ध में एक निश्चित व्याख्यान विधि रही है जिसका उल्लेख नियुक्ति, अनुयोगद्वार, बृहत्कल्पभाष्य, विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रन्थों में सांगोपांग रूप से उपलब्ध है। प्रसंगतः आचार्य हरिभद्र के मन्तव्य का यहां पर उल्लेख करना उचित होगा। उन्होंने इसी व्याख्यान विधि को अपने दार्शनिक ज्ञान के प्रकाश में नवीनता के साथ प्रस्तुत किया है। व्याख्यान विधि नये नामों के साथ प्रस्तुत किया है / वे नाम हैं—पदार्थ, वाक्यार्थ, महावाक्यार्थ, ऐदम्पर्यार्थ / 1. किसी भी प्राणी का घात न किया जाए यह ‘पदार्थ' है। 2. यदि प्राणिघात वर्ण्य हैं तो आवश्यक करणीय कैसे किए जाएंगे यह शंका . विचार 'वाक्यार्थ' है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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