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________________ 196 / आर्हती-दृष्टि 3. आवश्यक कर्तव्य अगर शास्त्र विधिपूर्वक किया जाए तो उससे होने वाला प्राणिघात दोषावह नहीं है। अविधिकृत ही दोषावह है. यह विचार महावाक्यार्थ है। 4. जो जिनाज्ञा है वह एकमात्र उपादेय है ऐसा तात्पर्य निकालना ऐदम्पर्यार्थ इस प्रकार सर्वथा निषेध रूप सामान्य नियम में विधिविहित अपवादों को ऐदम्पर्य तक निकाला जाता है / इस पृष्ठभूमि के साथ हमें अनुयोगद्वार का अवबोध करना है। जैसा के हमें ज्ञात हुआ कि जैन व्याख्या पद्धति का नाम अनुयोगद्वार है। सर्वप्रथम शब्दमीमांसा के द्वारा अनुयोग को समझने का प्रयत्न करेंगे। अनुयोग का अर्थ है व्याख्या और द्वार का अर्थ है प्रवेश-स्थान / अतः अनुयोगद्वार का सामान्य अर्थ है व्याख्यान करने की पद्धति अथवा उसका प्रवेश पथ। शीलांकाचार्य ने अनुयोग को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “सूत्रादनुपश्चादर्थस्य योगो अनुयोगः” सूत्र के पश्चात् अर्थ का योग करना अनुयोग है अथवा संक्षिप्त सूत्र का महान् अर्थ के साथ समायोजन करना अनुयोग है / आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अनुयोग को परिभाषित करते हुए कहा अणुओयणमणुयोगो सुयस्स नियएण जमभिधेएणं / वावारो वा जोगो जो. अणुरुवोऽणुकूलो वा। सूत्र का स्वयं के अभिधेय अर्थ के साथ जो सम्बन्ध होता है वह अनुयोग है अथवा योग का अर्थ है व्यापार / अतः सूत्र का निज अभिधेय के साथ अनुरूप या अनुकूल जो योग होता है वह अनुयोग है। आवश्यक नियुक्ति में अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा एवं वार्तिक इन शब्दों को एकार्थक माना है / ये पांचों ही शब्द अर्थ के अन्तर्गत आते हैं / अर्थ को प्रवचन का पर्यायवाची माना गया है अतः अनुयोग प्रवचन अर्थात् श्रुत (आगम) का एक भाग है / अनुयोग सूत्र के साथ अर्थ का सम्बन्ध करवाने वाला है / आवश्यकनिर्यक्ति में तथा विशेषावश्यक भाष्य में तथा उसकी कोट्याचार्य की टीका में एवं मलधारी की टीका में भाषा, विभाषा आदि का अन्तर स्पष्ट करनेवाले अनेकों उदाहरण उपलब्ध हैं, यथा-सूत्र काष्ठ के समान है। सूत्र के एक अर्थ का भाषण भाषा है। स्थूल अर्थों का कथन विभाषा एवं यथासम्भव सम्पूर्ण अर्थों का प्रकटीकरण वार्तिक है। .. प्रश्न उपस्थित होता है कि अनुयोगद्वार करने की आवश्यकता क्या है ? अनुयोग
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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