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________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 265 सहायता से उत्पन्न होनेवाला यह मतिज्ञान परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत है / यद्यपि अनुयोगद्वार एवं नन्दी सूत्र में इन्द्रियज ज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष स्वीकार किया है। तथा विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता ने उस इन्द्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष ही माना है।" परमार्थतः तो वह परोक्ष ही है। विशेष द्रष्टव्य बिन्दु यह कि जिनभद्रगणि ने इन्द्रिय के साथ मन से उत्पन्न को भी संव्यवहार प्रत्यक्ष में स्वीकार किया है जबकि नन्दी आदि सूत्रों में मन का ग्रहण नहीं है, मात्र पांच इन्द्रियों का ही ग्रहण है। मन से उत्पन्न ज्ञान को परोक्ष ही माना है। वाचक उमास्वाति ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद को ही स्वीकृति नहीं दी। इन्द्रियज को परोक्ष ज्ञान ही माना है / यह स्पष्ट है कि इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष स्वीकार करना लौकिक परम्परा का अनुसरण है। आगमिक परम्परा में सभी जैन चिन्तकों ने उसे परोक्ष ही माना है। ___आभिनिबोधिक ज्ञान को परिभाषित करते हुए विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है-अर्थाभिमुख नियत बोध को अभिनिबोध माना गया है तथा अभिनिबोध ही आभिनिबोधिक ज्ञान है। अर्थग्रहण करने में प्रवण को अर्थाभिमुख एवं निश्चित अवबोध को नियत बोध कहा जाता है / जैसे रस आदि का अपोह करके यह रूप ही है ऐसा अवधारणात्मक अर्थाभिमुख ज्ञान ही आभिनिबोधिक ज्ञान है।" भद्रबाहुकृत् आवश्यक नियुक्ति एवं नन्दी सूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान के एक जैसे पर्यायवाची नाम प्राप्त हैं / " वहां पर ईहा, अपोह, वीमंसा, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति एवं प्रज्ञा इन सबको आभिनिबोधिक कहा गया है। विशेषावश्यक में नियुक्ति का यही श्लोक उद्धृत है।" तत्त्वार्थसूत्रकार ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता एवं अभिनिबोध को एकार्थक माना है। आचार्य अकलंक कुछ अतिरिक्त पर्याय शब्दों को और जोड़ देते हैं जैसे—प्रतिभा, बुद्धि, उपलब्धि आदि / आचार्य उमास्वाति ने प्रथम बार मतिज्ञान की परिभाषा तत्त्वार्थ सूत्र में दी। इससे पूर्व मति के पर्यायवाची नाम मिलते हैं किन्तु परिभाषा उपलब्ध नहीं है / इन्द्रिय एवं मन से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान मतिज्ञान है। उमास्वाति ने अपने स्वोपज्ञ भाष्य में मतिज्ञान को दो प्रकार का बतलाया है—१. पांच इन्द्रियों से स्पर्श आदि विषयों में होनेवाला तथा 2. मनोवृत्ति एवं ओघज्ञान को अनिन्द्रिय माना है। सिद्धसेनगणि ने इन्द्रिय एवं मन दोनों की संयुक्त क्रिया से भी मतिज्ञान ( माना है / यह निमित्त की अपेक्षा से मतिज्ञान के भेद हैं / सर्वांगीण दृष्टि से अवलोकन करने पर मतिज्ञान के चार प्रकार हो जाते हैं-१. मात्र इन्द्रिय से उत्पन्न, 2. केवल मन से, 3. इन्द्रिय एवं मन दोनों से, तथा 4. इन्द्रिय एवं मन दोनों की सहायता के बिना उत्पन्न / प्रथम तीन के अवग्रह आदि भेद होंगे। चतुर्थ के औत्पत्तिकी आदि चार
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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