________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान ज्ञान का क्षेत्र बहुत व्यापक है / उससे मूर्त एवं अमूर्त दोनों प्रकार के तत्त्व जाने जाते हैं। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों प्रकार के विषयों का अवबोध ज्ञान के द्वारा होता है। जैन दर्शन में मति आदि पांच ज्ञान प्रसिद्ध हैं। उनमें केवलज्ञान को छोड़कर शेष चार ज्ञान मात्र मूर्त द्रव्यों के ही ग्राहक हैं / केवलज्ञान मूर्त-अमूर्त सभी विषयों का ज्ञाता है। प्रथम चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, उनमें ज्ञानावरण कर्म का आवरण सर्वथा क्षीण नहीं होता। केवलज्ञान क्षायिक है / वही आत्मा का विशुद्ध रूप है। ज्ञान, दर्शन और आचार इस त्रिपदी में ज्ञान का स्थान प्रथम है किन्तु सम्यक् शब्द का योग होते ही ज्ञान का स्थान दूसरा एवं श्रद्धा का स्थान प्रथम हो जाता है। ज्ञान और दर्शन एक ही सिक्के के दो पहल हैं। ___ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है / ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना नहीं की जा सकती। आचारांग में तो ज्ञान एवं आत्मा के अद्वैत को स्थापित किया है।' व्यवहार नय के आधार पर आत्मा और ज्ञान का भेद है एवं निश्चय नय से आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। न्याय वैशेषिक दर्शन ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण मानता है किन्तु जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का मौलिक गुण मानता है / संसारी अवस्था में आत्मा का ज्ञान ज्ञानावरण कर्म से आवृत्त रहता है। अनावृत्त ज्ञान एक हैकेवलज्ञान / आवृत्त-दशा में उसके चार विभाग होते हैं / आवृत्त-अनावृत्त दोनों प्रकार के ज्ञानों को मिलाने से ज्ञान के पांच प्रकार हो जाते हैं—मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव एवं केवल / मति एवं श्रुत ये दो ज्ञान न्यूनतम रूप से सभी जीवों के होते हैं। मतिज्ञान ____पांच ज्ञानों में यह प्रथम ज्ञान है / आगम में मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहा गया है। कर्म सिद्धान्त में जब ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद आते हैं तब मतिज्ञानावरण का प्रयोग होता है। किन्तु पंच ज्ञान विभाग में प्रायः आगम में मति के स्थान पर आभिनिबोधिक ज्ञान इस शब्द का प्रयोग मिलता है। विशेषावश्यक भाष्य में भी ज्ञान प्रभेद में आभिनिबोधिक शब्द का प्रयोग हुआ है। विद्वान् मति शब्द को प्राचीन एवं आभिनिबोधिक प्रयोग को अर्वाचीन मानते हैं। इन्द्रिय एवं मन की