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________________ 210 / आर्हती-दृष्टि जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा निरन्तर आध्यात्मिक आरोहण कर सकता है। क्षायोपशमिक भाव के द्वारा ही आध्यात्मिक विकास सम्भव है और क्षायोपशमिक भाव की वृद्धि पुरुषार्थ से सम्भव है। भगवान् महावीर पुरुषार्थवाद के प्रवक्ता थे। उनका सिद्धान्त था कि जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्म का बन्ध करता है और पुरुषार्थ के द्वारा उसमें परिवर्तन भी कर सकता है। कर्मवाद का सामान्य नियम है-अपने किये हए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। यदि यह नियम सार्वभौम एवं निरपेक्ष हो तो धार्मिक पुरुषार्थ की सार्थकता कम हो जाती है। उसकी सार्थकता तभी फलित होती है कि मनुष्य अतीत के बन्धन को बदल डाले / पूर्वकृत कर्म को निर्वीर्य बना दे। अध्यात्म विकास का तात्पर्य है कर्मों के बन्धन को तोड़ डालना। ज्यों-ज्यों कर्म बन्ध शिथिल होता जाएगा, आत्मा अपने स्वभाव को प्राप्त होती जाएंगी। इस प्रकार कर्म के क्षयोपशम के द्वारा व्यक्ति आध्यात्मिक ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है, ऐसा निर्विवाद कहा जा सकता है। .. सन्दर्भ 1. जैन-सिद्धान्त-दीपिका.४/१ .. 2. भगवती 1/119 3. ठाणं 2/1 4. तत्त्वार्थ सू. 2/1 5. तत्त्वा . भा. टी. 2/1 6. जैन सि. दी. 2/42 7. अनुयोगद्वार, भा. सू. 271 8. सव्वजीवाणं पि य णं-अक्खरस्स अणंततमो भागो निच्चुघाडिओ, जई पुण सो वि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा। नन्दी सूत्र 71 9. तदत्यन्तात्ययात् सः क्षयः / तत्त्वा. भा. टी. 2/1, 10. सव्यधादिफद्दयाणि अणंतगुणहीणाणि घेदूण देसघादिफद्दयत्तणेण परिणमिय उदयमागच्छंति, तेसिमणंतगुणहीणतं खओ णाम। देसघादिफद्दयसरुवेणवट्ठाणमुवसमो। तेहिं खओवसमेहिं संजुत्तोदयो खओवसमो णाम। धवला 7/2, 1, 49/91/7, 11. सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघातिस्पर्द्धकानामुदये क्षायोपशमिको भावो भवति। सर्वार्थसिद्धि 2/5/157/3, 12. उभयात्मको मिश्रः क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत् ।तत्त्वा. रा. वा. 2/1/3,
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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