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________________ 94 / आर्हती-दृष्टि क्या लाभ होता है। भगवान् ने कहा—गौतम / गति का सहारा नहीं होता तो कौन आता, कौन जाता, शब्द की तरंगे कैसे फैलतीं? आंखें कैसे खुलती ? कौन मनन करता? कौन बोलता? कौन हिलता-डुलता / यह विश्व उसके बिना अचल ही होता। जो चल है। इन सबका आलम्बन गति सहायक तत्त्व धर्म ही है। इसी प्रकार अधर्म के सन्दर्भ में गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-भन्ते ! स्थिति सहायक तत्त्व से जीवों को क्या लाभ होता है। तब भगवान् ने कहा—गौतम ! स्थिति का सहारा नहीं होता तो कौन खड़ा रहता? कौन बैठता? सोना कैसे होता? कौन मन को एकाग्र करता? मौन कौन करता? कौन निष्पन्द बनता? निमेष कैसे होता? यह विश्व चल ही होता / जो स्थिर है, उन सबका आलम्बन स्थिति सहायक द्रव्य अधर्म ही है। अतः धर्म-अधर्म दोनों ही द्रव्य जीव एवं पुद्गल के गति-स्थिति के उपकारक द्रव्य हैं। लोक के आकार का निर्धारण इन दोनों द्रव्यों के आधार पर होता है। लोक का आकार त्रिशरावसम्पुटाकार माना जाता है पर वास्तव में यह आकार धर्म एवं अधर्म का ही है। इनके आकार के आधार पर ही लोक के आकार की व्याख्या की जाती है। लोक एवं अलोक की विभाजक रेखा इन तत्वों के द्वारा ही निर्धारित होती है। इनके बिना लोक अलोक की व्यवस्था नहीं बनती। जैसा कि प्रज्ञापना की टीका में कहा है- 'लोकालोकव्यवस्थान्यथानुपपत्तेः।' ' धर्म और अधर्म की यौक्तिक अपेक्षा है ।गति-स्थिति निमित्तक द्रव्य, तथा लोक-अलोक की विभाजक शक्ति के रूप में उन दोनों की अनिवार्य अपेक्षा है। गति स्थिति सम्पूर्ण लोक में होती है। इसलिए हमें ऐसी शक्तियों की अपेक्षा है, जो स्वयं गतिशून्य और सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हों और अलोक में न हों / इस यौक्तिक आधार पर हमें धर्म-अधर्म की आवश्यकता का सहज बोध होता है। . धर्मास्तिकाय के अस्तित्व को अस्वीकार करने से अनेक समस्याएं हमारे समक्ष उपस्थित हो जाएंगी। द्रव्यानुयोग तर्कणा में कहा गया है सहजोर्ध्वगमुक्तस्य धर्मस्य नियम विना। कदापि गगनेऽनन्ते भ्रमणं न निवर्तते / / मुक्त जीव का सहज स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना है / यदि धर्म द्रव्य का नियम स्वीकार नहीं किया जाता है तो उन जीवों का अनन्त आकाश में भ्रमण कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। ऐसी ही समस्या अधर्म को अस्वीकारने से आती है
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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