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________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 95 स्थितिहेतुर्यदा धर्मोनोच्यते क्वापि चेद् द्वयोः / तदा नित्या स्थिति: स्थाने कुत्रापि न गतिर्भवेत् / / आचार्य कुन्दकुन्द ने भी पञ्चास्तिकाय में कहा है-यदि आकाश अवगाह की तरह गमन एवं स्थिति में भी कारण हो जाए तो कई समस्याएं हमारे सम्मुख उपस्थित होती हैं / (1) प्रथम ऊर्ध्वगति स्वभाववाले सिद्ध जीव कहां ठहरेंगे? वे तो निरन्तर गति ही करते रहेंगे / (2) यदि आकाश को गमन हेतु मान लिया जाए तो अलोक का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और लोक सीमा की वृद्धि हो जाएगी। क्योंकि धर्म अधर्म ही तो लोक-अलोक के विभाजक तत्त्व है आगासं अवगासं गमणद्विदिकारणेहिं देदि जदि। उडुंगदिष्पधाणा सिद्धा चिटुंति किध तत्थ // जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं। . पसजदि अलोगहाणी लोगस्स अंतपरिवुड्डी // .. अलोक में जीव-पुद्गल नहीं होते। इसका कारण धर्म और अधर्म द्रव्य का अलोक में अभाव है। इसलिए धर्म-अधर्म लोक-अलोक के विभाजक बनते हैं। सिद्धसेनगणि ने आकाश के सम्बन्ध में एक शंका स्तुत की है कि आकाश का गुण अवगाह देना है जबकि अलोकाकाशं अवगाह नहीं देता ऐसी स्थिति में क्या आकाश का लक्षण अव्याप्त लक्षणांभास से दूषित नहीं हो जाएगा। टीकाकार स्वयं इसका समाधान देते हुए कहते हैं कि आकाश में अवगाह का गुण विद्यमान है, पर अलोक में धर्म-अधर्म का अभाव होने से जीव-पुद्गल वहां नहीं जा सकते। धर्म-अधर्म के अस्तित्व के सन्दर्भ में एक शंका यह भी की जाती है कि वे दोनों दिखाई नहीं देते फिर उसका अस्तित्व कैसे स्वीकार किया जाए। समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया वे दोनों अमूर्त द्रव्य हैं / 'नोइन्दियजेज्झ अमुत्त भावा' / अमूर्त पदार्थ इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होते, वे तो उपग्रह के द्वारा अनुमेय होते है। 'उपग्रहानुमेयत्वात्।' भगवती वृत्ति पत्र में भी कहा गया है कि छास्थों को अमूर्त पदार्थों का ज्ञान उनके कार्यों द्वारा होता है 'कार्यादिलिङ्गद्वारेणैवार्वाग्दृशामतीन्द्रियपदार्थावगमो भवति।' इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म अधर्म का स्वरूप की दृष्टि से ही वैशिष्ट्य नहीं. बल्कि ये दोनों लोक के महत्त्वपूर्ण घटक द्रव्य हैं / इनके अभाव में लोक-व्यवस्था ही
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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