________________ धारावाहिक ज्ञान : प्रामाण्य एक चिंतन | 347 को अपेक्षा से। पर्याय की अपेक्षा से धारावाहिक ज्ञान गृहीतग्राही नहीं हो सकता। क्योंकि पर्याय क्षणिक है / वे नई-नई उत्पन्न होती रहती हैं। वे कभी भी गृहीतग्राही हो नहीं सकती, अतएव उसका निराकरण करने के लिए प्रमाण लक्षण में अपूर्वपद रखना व्यर्थ है। यदि द्रव्य की अपेक्षा गृहीतग्राही के प्रामाण्य का निषेध करते हैं तो यह भी युक्ति संगत नहीं है क्योंकि द्रव्य त्रैकालिक है नित्य है, अतः द्रव्य की अपेक्षा गृहीतग्राही एवं ग्रहीष्यमाणग्राही में कोई अंतर नहीं आता है। ऐसी स्थिति में गृहीतग्राही को अप्रमाण एवं गृहीष्यमाणग्राही को प्रमाण मानना तर्कसंगत नहीं हो सकता। जैन परंपरा में गृहीतग्राही होने पर भी अवग्रह, ईहा आदि को प्रमाण माना है, उनके विषय भिन्न-भिन्न नहीं हैं। यदि इनके विषय भिन्न माने जाएं तो अवग्रह से ज्ञात को ईहा ग्रहण नहीं कर सकती। ईहा से ज्ञात पदार्थ का अवाय निर्णय नहीं कर सकती। ऐसा कहा जाए अवग्रह ईहा आदि क्रमशः वस्तु की अपूर्व पर्याय को प्रकाशित करते हैं, अतएव अनधिगतग्राही है। इस कथन के आधार पर तो किसी भी ज्ञान को गृहीतग्राही कहा ही नहीं जा सकेगा। अतएव यह सुस्पष्ट है कि धारावाहिक ज्ञान प्रमाण है।