________________ 114 / आर्हती-दृष्टि : करते ही अयथार्थ बन जाते हैं। सब, सब प्रकार से सर्वदा जो भेद रहित हो वह द्रव्यास्तिक का वक्तव्य है और विभाग या भेद का प्रारम्भ होते ही वह पर्यायास्तिक के वक्तव्य का मार्ग बन जाता है दवट्ठियक्त्तव्वं सव्वं सब्वेण णिच्चमवियप्पं / आरद्धो य विभागो पज्जववत्तव्वभग्गो य॥ जगत् भेदाभेद उभयरूप है। अभेद तक द्रव्यास्तिक की मर्यादा है भेद पर्यायास्तिक का विषय है। सभी नय अपने-अपने वक्तव्य में सत्य हैं जब वे दूसरे का निराकरण करते हैं तब मिथ्या हो जाते हैं अतः अनेकान्त शास्त्र का ज्ञाता उन नयों का 'ये सच्चे हैं और ये झूठे हैं' ऐसा विभाग नहीं करता णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिदुसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा॥. . नय देशना की फलश्रुति द्रव्यास्तिक नय स्थिर तत्त्व को स्वीकार करता है। उसके अनुसार आत्मा कर्म का बंध करता है तथा उसका फल भी भोगता है। 'दव्ववद्वियस्स आया बंधइ कम्मं फलं च वेएड्।' द्रव्यास्तिक नय की दृष्टि से जो करता है वही निश्चित रूप से फल भोगता है। 'दव्वट्ठियस्स जो चेव कुणइ सो चेव वेयए णियमा।' . इसके विपरीत पर्यायार्थिक नय के अनुसार मात्र उत्पत्ति होती है न तो कोई बंध करता है और न कोई फल भोगता है 'बीयस्स भावमेत्तं ण कुणइ ण य कोइ वेएइ।' पर्यायास्तिक तो यहाँ तक कहता है कि अन्य करता है तथा उसका परिभोग अन्य ही करता है 'अण्णो करेइ अण्णो परिभुजंइपज्जवणयस्स / ' जैन दृष्टि के अनुसार दोनों नय की सापेक्ष देशना ही सम्यक् है अतः द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक दोनों नय सम्मिलित रूप से ही वस्तु व्याख्या कर सकते हैं / आचार्य