________________ .. जैनज्ञानमीमांसा का विकास / 261 तीसरा प्रयत्न लघीयत्रयी और विशेषतः प्रमाण संग्रह में है, वह उनकी अपनी महत्त्वपूर्ण चिन्तना है। उनके अष्टसहस्री, आदि ग्रन्थों में भी ज्ञान एवं प्रमाण सम्बन्धी विशद चर्चा उपलब्ध है / उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञान बिन्दु प्रकरण में सम्पूर्ण अद्यप्रभृति ज्ञान मीमांसा का सार तत्त्व प्रस्तुत कर दिया। नयदृष्टि से अनेकों विचारणीय मुद्दों का समाधान भी उपाध्याय जी के ग्रन्थों में परिलक्षित है / इसके अतिरिक्त ज्ञान सम्बन्धी अनेक नए विचार भी ज्ञान बिन्दु में सन्निविष्ट है जो उनके पूर्व के ग्रन्थों में प्राप्त नहीं है। जैसे अवग्रह आदि की तुलना न्याय आदि दर्शनों में आगत कारणांश, व्यापारांश आदि से की है। ज्ञान मीमांसा के परिवर्धन, परिशोधन में अनेक आचार्यों का योगदान रहा है। विशेष बात यह है कि ज्ञान के आगमिक मौलिक स्वरूप एवं भेद आदि का कहीं भी अतिक्रमण नहीं हुआ है। जैन आगमों में प्रमाण चर्चा ज्ञानमीमांसा का उद्भव, विकास जैन परम्परा में स्वदर्शन के अभ्यास से हुआ। आगमिक उल्लेख से यह तथ्य स्पष्ट है कि ज्ञान के साथ में प्रमाण को सम्मिश्रित नहीं किया गया। यद्यपि ऐसा तो नहीं कहा जा सकता जैन आचार्य अपने परिपार्श्व में होने वाली प्रमाण चर्चा से अनभिज्ञ थे किन्तु इतना तो निश्चित है प्रमाण के क्षेत्र में उनका आगमन देरी से हुआ। अन्य जैनेतर परम्पराओं में जब प्रमाण का स्वरूप स्थिर एवं निश्चित हो गया तो जैन तार्किकों के समक्ष भी प्रमाण सम्बन्धी समस्या का उद्भव हुआ कि जैन परम्परा में प्रमाण किसको माना जाये / इस समस्या के समाधान में ज्ञान ने ही प्रमाण का रूप धारण कर लिया आचार्य आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार में प्रमाण की सर्वप्रथम चर्चा की है। वहाँ पर उन्होंने प्रमाणों को ज्ञानगुण प्रमाण के भेद के रूप में ही व्याख्यायित किया है / अन्य दार्शनिक प्रत्यक्ष आदि जिन चार प्रमाणों को मानते थे। आर्य रक्षित ने स्पष्ट किया ये प्रमाण ज्ञानात्मक है। इस विवेचन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा में अज्ञान रूप इन्द्रिय सन्निकर्ष, कारक साकल्य, इन्द्रियवृत्ति आदि प्रमाण नहीं हो सकते। सिद्धसेन से लेकर सभी जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के लक्षण में ज्ञानपद को अवश्यमेव स्थान दिया है। जैन आगमों में प्रमाणचर्चा, ज्ञानचर्चा से स्वतन्त्र रूप से प्राप्त है / यद्यपि आगमों में प्रमाण चर्चा के प्रसंग में नैयायिक आदि सम्मत चार प्रमाणों का उल्लेख आता है। कहीं-कहीं तीन प्रमाणों का भी उल्लेख है / भगवती सूत्र में गौतम गणधर और भगवान् महावीर के संवाद में भी प्रमाणचर्चा का अवतरण हुआ है। इससे सम्भव लगता है कि शास्त्रकार स्वसम्मत ज्ञान की तरह प्रमाण को भी ज्ञप्ति में स्वतन्त्र साधन मानते