________________ 262 / आर्हती-दृष्टि थे। स्थानांग सूत्र में प्रमाण शब्द के स्थान में हेतु शब्द का प्रयोग भी मिलता है। इतनी चर्चा से स्पष्ट है कि जैन शास्त्रकारों ने आगम काल में जैन दृष्टि से प्रमाण विभाग में स्वतन्त्र विचार नहीं किया है किन्तु इस काल में प्रसिद्ध अन्य दार्शनिकों के विचारों का संग्रह मात्र उनमें परिलक्षित है। यद्यपि उमास्वाति तक आते-आते जैन प्रमाण परम्परा का पृथक् स्वरूप प्रतिपादित हो जाता है। तत्पश्चात्वी आचार्यों के ग्रन्थों में प्रमाणचर्चा प्रमुख विचारणीय विषय रहा है। . जैन दर्शन में पदार्थ ज्ञप्ति में नयवाद का मौलिक स्थान है। आगम साहित्य में अनेक बार द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय के द्वारा तत्त्व की विवेचना हुई है / गौतम भगवान् से जिज्ञासा करते हैं-भंते ! जीव शाश्वत है या अशाश्वत? भगवान् गौतम को सम्बोधित करते हुए कहते हैं—गौतम ! द्रव्य अपेक्षा जीव शाश्वत है तथा भाव (पर्याय) की अपेक्षा अशाश्वत है / जैन दर्शन के अनुसार वस्तु अनन्तधर्मात्मक है तथा उसको ही प्रमाण का विषय भी स्वीकार किया गया है / वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता का साक्षात् तो मात्र केवल ज्ञान रूप क्षायिक ज्ञान से ही हो सकता है। छद्मस्थ के ज्ञान को भी आगम एवं दर्शन दोनों परम्परा में सम्यक् माना गया है। ऐसी स्थिति से स्याद्वाद, सप्तभंगी आदि के द्वारा ज्ञेय व्यवस्था स्थापित की गयी है / दर्शन जगत् में जब प्रमाण की चर्चा होने लगी तब सम्भव लगता है कि जैन दार्शनिकों को भी प्रमाण के क्षेत्र में अवतरित होना पड़ा। प्रमाण की स्वीकृति करने पर भी नय को विस्मृत नहीं किया गया अपितु कहना चाहिए नय व्यवस्था को नवीनीकरण के साथ प्रस्तुत किया गया। नय के प्रमाण व अप्रमाणत्व के सन्दर्भ में भी चिन्तन किया गया। नय को प्रमाणांश स्वीकार किया गया। किन्तु यह स्पष्ट है ज्ञेय-ज्ञप्ति में नय व्यवस्था जैनों की प्राचीन एवं मौलिक है तथा प्रमाण व्यवस्था परिस्थिति सापेक्ष उद्भूत हुई है। विद्वानों का मन्तव्य है कि जैन विचार सरणी में ज्ञान की प्रमुखता से स्वीकृति है किन्तु तत्कालीन प्रमाण परिचर्चा के वातावरण ने जैन विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया, फलस्वरूप कुछ नये प्रस्थानों का विकास हुआ। आचार्य उमास्वाति ने सर्वप्रथम स्वतन्त्र जैन प्रमाण की चर्चा की। ज्ञान ही प्रमाण रूप में परिणत हो गया। तत्पश्चात् ज्ञान और प्रमाण की परम्परा निरन्तर विकसित होती गयी। आचार्य उमास्वाति ने ज्ञेय पदार्थ के अवबोध के सन्दर्भ में प्रचलित नय व्यवस्था को विस्मृत नहीं किया, अपितु पदार्थ अधिगम के साधन रूप में प्रमाण एवं नय दोनों को स्वीकार किया। __ आगम युग तक जैन साहित्य में ज्ञान मीमांसा का ही प्राधान्य रहा। प्रमाण का प्रवेश दर्शन युग में हुआ है। उसका प्रवेश करवाने वालों में दो, प्रमुख आचार्य