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________________ 260 / आहती-दृष्टि 2. अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान में तत्त्वतःअभेद है / दिवाकरजी के अनुसार इन दो ज्ञानों को पृथक् स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। एक ज्ञान के स्वीकार से भी प्रयोजन सिद्धि हो जाती है। 3. जैन परम्परा में मान्य केवलज्ञान एवं केवलदर्शन रूप उपयोग को इन्होंने पृथक् स्वीकृति नहीं दी तथा उनके अभेद समर्थन में अपनी महत्त्वपूर्ण तार्किक युक्तियों को प्रस्तुत किया। 4. सिद्धसेन दिवाकर ने श्रद्धान रूप दर्शन एवं ज्ञान में अभेद को भी स्वीकार किया है। इन चार नवीन मुद्दों को प्रस्तुत करके सिद्धसेन दिवाकर ने ज्ञान के भेद प्रभेद की प्राचीन रेखा पर तार्किक विचार कर नया प्रकाश डाला है। इन नवीन विचारों पर जैन परम्परा में काफी ऊहापोह हुआ। दिवाकर श्री ने इन चार मुद्दों पर अपने स्वोपज्ञ विचार सन्मति तर्क प्रकरण एवं निश्चयद्वात्रिंशिका में व्यक्त किए हैं। न्यायावतार की रचना करके प्रमाण के क्षेत्र में भी अभिनव उपक्रम प्रस्तुत किया है। जिनभद्रीय ज्ञान मीमांसा आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ज्ञान विचार विकास के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आगम परम्परा से लेकर उनके समय तक ज्ञान मीमांसा का जो स्वरूप उपलब्ध था उसी का आश्रय लेकर क्षमाश्रमण जी ने अपने विशालकाय ग्रन्थ, विशेषावश्यकभाष्य में ज्ञान की विशद मीमांसा की है। विशेषावश्यकभाष्य में ज्ञान पञ्चक की ही 840 गाथाएं हैं। इस भाष्य में जिनभद्रगणि ने पंचविध ज्ञान की आगम आश्रित तर्कानुसारिणी सांगोपांग चर्चा प्रस्तुत की है। क्षमाश्रमणजी की इस विकास भूमिका को तर्क उपजीवी आगम भूमिका कहना अधिक युक्तिसंगत है। उनका पूरा तर्क बल आगम सीमा में आबद्ध देखा जाता है, विशेषावश्यकभाष्य में ज्ञान से सम्बन्धित सामग्री अत्यन्त व्यवस्थित रूप से गुम्फित कर दी है, जो सभी श्वेताम्बर ग्रन्थ प्रणेताओं के लिए आधारभूत बनी हुई है। जिनभद्र से उत्तरवर्ती आचार्यों की ज्ञान मीमांसा ___श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के उत्तरवर्ती कुछ विशिष्ट आचार्यों का योगदान ज्ञान के क्षेत्र में रहा है / आचार्य अकलंक विद्यानन्दी, हेमचन्द्र और उपाध्याय यशोविजयजी उनमें प्रमुख हैं / ज्ञान विचार के विकास क्षेत्र में भट्ट अकलंक का-प्रयल बहुमुखी है। ज्ञान सम्बन्धी उनके तीन प्रयत्न विशेष उल्लेखनीय हैं / प्रथम तत्त्वार्थसूत्रानुसारी तथा दूसरा सिद्धसेन दिवाकर के न्यायावतार सूत्र का प्रतिबिम्बग्राही कहा जा सकता है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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