________________ 238 / आर्हती-दृष्टि ज्ञान ऐन्द्रियिक एवं सौन्दर्य का ज्ञान बौद्धिक है / बौद्धिक ज्ञान नित्य, अपरिणामी सत्यों (eternal and immutable truths) का ज्ञान है / आन्तर ज्ञान यह उच्चतम ज्ञान है। ऑगस्टाइन इसे 'प्रज्ञा' कहते हैं। यह बुद्धि का सर्वोत्तम स्वरूप है। बुद्धि निर्णय करती है परन्तु निर्णय की शक्ति प्रज्ञा से प्राप्त होती है। प्रज्ञाध्यानपरक ज्ञान है। वह आत्मज्ञान है। ___ ज्ञान स्वरूप एवं ज्ञान की प्रामाणिकता स्पिनोजा की ज्ञान-मीमांसा के महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। स्पिनोजा स्वतः प्रामाण्यवादी हैं। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है कि ज्ञान स्वतः प्रकाशी है, उसे प्रकाशित करने के लिए किसी दूसरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। स्पिनोजा भी ज्ञान के तीन स्तर बताते हैं / इन्द्रियजन्य ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान एवं प्रज्ञाजन्य ज्ञान / जैन दर्शन के अनुसार स्पिनोजा स्वीकृत प्रथम दो ज्ञानों का समावेश मति, श्रुत ज्ञान में तथा प्रज्ञाजन्य ज्ञान का समाहार पारमार्थिक प्रत्यक्ष में किया जा सकता लॉक के दार्शनिक विचारों का प्रारम्भ उनके ज्ञान सिद्धान्त से होता है। लॉक ज्ञान-मीमांसा को सभी दार्शनिक विचारों की आधारशिला मानते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ज्ञान-मीमांसा से लॉक का तात्पर्य ज्ञान की उत्पत्ति तथा ज्ञान के प्रामाण्य से है। इन दोनों के आधार पर लॉक ज्ञान के स्वरूप का निश्चय करते हैं।" लॉक के अनुसार समस्त ज्ञान अनुभव जन्य है तथा उसकी प्रामाणिकता भी अनुभव पर आश्रित है। उनके अनुसार कोई भी प्रत्यय, धारणा जन्मजात नहीं है। लॉक ज्ञानपक्ष में बुद्धिवाद का खण्डन करके अनुभववाद का समर्थन करते हैं / बर्कले भी अनुभववादी हैं / लॉक ने अनुभववाद का प्रारम्भ किया तथा बर्कले ने उसे परिष्कृत किया। देकार्त बुद्धिवादी हैं। इनके अनुसार बुद्धि ही यथार्थज्ञान की जननी है / यह यथार्थज्ञान सार्वभौम, सुनिश्चित और अनिवार्य है। यही ज्ञान का स्वरूप है। इस प्रकार के ज्ञान का आदर्श गणित शास्त्र है / देकार्त के अनुसार यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के दो साधन हैं५-सहज ज्ञान एवं निगमन / सहज ज्ञान तो अनुभूति है तथा निगमन अनुमानजन्य ज्ञान है / देकार्त का मानना है कि सब ज्ञानों का आधार तो सहजज्ञान है, परन्तु निष्कर्ष निगमनात्मक ज्ञान है / देकार्त आत्मज्ञान को सह-बोध, स्वतःसिद्ध मानकर अन्य विषयों का ज्ञान आत्मज्ञान पर आधारित मानते हैं। . ___लाइबनित्स का ज्ञान सिद्धान्त तत्त्व सिद्धान्त से सम्बन्धित है। उनके अनुसार चिदणु ही तत्त्व है तथा चिदणु गवाक्षहीन होने के कारण बाह्य प्रभाव से विहीन है।