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________________ . 134 / आर्हती-दृष्टि साभिप्राय किया है। ऐसा पंडित दलसुख भाई मालवणिया का अभिमत है।" जैन आगमों में अनेकान्त शब्द का प्रयोग तो उपलब्ध नहीं है किन्तु अनेकान्त के सम्पोषक तथ्यों से वे ग्रन्थ मरे हैं। अनेकान्त का प्राचीन रूप विभज्यवाद माना जाता है। विभज्यवाद शब्द का प्रयोग सूत्रकृतांग में हुआ है 'विभज्जवायं च वियागरेज्जा'। विभागपूर्वक प्रश्न को समाहित करने की तो महावीर की मौलिक शैली रही है। आचारांग से लेकर उत्तरवर्ती ग्रन्थों में इस शैली के अनेकों उदाहरण प्राप्त हैं। जो एक को जानता है वह सबको जानता है / जो सबको जानता है। वह एक को जानता है। जो आश्रव है वे ही परिश्रव है।" दर्शन युग में बहुलता से प्रयुक्त अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि अनेकान्त के नियमों का मूल स्रोत आगम साहित्य ही है। भगवती सूत्र की गौतम महावीर प्रश्नोत्तरी इसका स्पष्ट प्रमाण है / दर्शन युग में अनेकान्त के नियमों का उपयोग विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों में समन्वय स्थापित करने के लिए हुआ, वहीं आगम युग में उनका उपयोग द्रव्य मीमांसा के परिप्रेक्ष्य में होता था। तत्व जिज्ञासा उपस्थित करते हुए गौतम पूछते हैं, भंते ! अस्थिर परिवर्तित होता है, स्थिर परिवर्तित नहीं होता / अस्थिर भग्न होता है स्थिर भन्न नहीं होता, क्या यह सच है? हाँ, गौतम ! यहऐसे ही है। जीव शाश्वत है या अशाश्वत? गौतम के इस प्रश्न को समाहित करते हुए महावीर कहते हैं- जीव स्यात् शाश्वत एवं स्यात् अशाश्वत है। द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत एवं भाव की अपेक्षा अशाश्वत है। इसी दृष्टि से जीव ही नहीं किन्तु सभी द्रव्य अपेक्षा भेद से शाश्वत अशाश्वत दोनों है / इस प्रकार के उदाहरणों से आपूरित आगम साहित्य में अनेकान्त और स्याद्वाद का विशद विवेचन उपलब्ध है। आगम ग्रन्थों में उपलब्ध अनेकान्त विचार के विकास में उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने अपनी प्रतिभा का सांगोपांग उपयोग किया है। सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, हरिभद्र, अकलंक, यशोविजयजी आदि आचार्यों के नाम अनेकान्त विकास में स्मरणीय हैं। आचार्य सिद्धसेन ने सन्मति तर्क-प्रकरण में विभिन्न नयों के आधार पर अन्य दर्शन की मान्यताओं में समन्वय करने का महत्त्वपूर्ण उपक्रम किया है। "सन्मति तर्क में ही सबसे पहले अनेकान्त शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। इसके बाद तो यह शब्द सर्वग्राह्य बन गया। आप्त मीमांसा में नित्यानित्य, सामान्य विशेष आदि विरोधी वादों * में सप्तभंगी की योजना कर समन्वय स्थापित किया है। इस प्रकार हम क्रमशः अनेकान्त के विकास क्रम को देख सकते हैं।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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