________________ सत्य व्याख्या का द्वार : अनेकान्त / 133 है, पर्याय गौण हो जाता है / जब ज्ञान विश्लेषणात्मक होता है, तब पर्याय प्रमुख एवं द्रव्य पर्दे के पीछे चला जाता है / आचार्य हेमचन्द्र ने इस तथ्य को अन्ययोगव्यवछेदिका में प्रस्तुत किया है।" ___ वस्तु का द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप ही अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत है / यदि वस्तु विरोधी युगलों की समन्विति नहीं होती तो अनेकान्त की भी कोई अपेक्षा नहीं होती, चूँकि वस्तु वैसी है अतः अनेकान्त की अनिवार्य अपेक्षा है / अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत वस्तु की विरोधी अनन्त धर्मात्मकता ही है। वस्तु व्यवस्था के क्षेत्र में अनेकान्त का उद्भव हुआ और फिर उसका सभी क्षेत्रों में व्यापक प्रयोग होने लगा। आज अनेकान्त दर्शन जैनदर्शन से अभिन्न बन चुका है। भगवान् महावीर के दर्शन साहित्य में अनेकान्त का जैसा विशद वर्णन हुआ है वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं किन्तु जब अनेकान्त के विकास-क्रम की ओर दृष्टि जाती है तो स्पष्ट होता है कि अनेकान्त दृष्टि का मूल भगवान महावीर से भी पूर्ववर्ती है। नालन्दा के प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित अनेकान्त की परीक्षा करते समय तत्त्व-संग्रह में कहते हैं कि विप्र मीमांसक, निर्ग्रन्थ जैन एवं सांख्य इन तीनों का अनेकान्तवाद समान रूप से निराकृत हो जाता है। इस कथन से स्पष्ट है कि सातवीं-आठवीं शताब्दी तक के बौद्ध विद्वान अनेकान्त को मात्र जैन का ही नहीं मानते थे, अन्य दर्शन भी अनेकान्तवादी थे। मीमांसक दर्शन के श्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थों में, सांख्य, योग दर्शन के परिणामवाद स्थापक ग्रन्थों में, अनेकान्त मूलक विचारणा उपलब्ध है। किन्तु यह तथ्य तो असंदिग्ध रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि अनेकान्त दृष्टि का जितना सुस्पष्ट विकास जैन ग्रन्थों में प्राप्त है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं है। यही कारण है कि आज अनेकान्त एवं स्याद्वाद को मात्र जैन दर्शन का सिद्धान्त माना जाता है। . ____ जैन आगमों के अनुशीलन से अनेकान्त विचार विकास का क्रम स्पष्ट परिलक्षित होता है / दार्शनिक जगत् में तत्त्व व्यवस्था के क्षेत्र में अनेकान्तवाद भगवान् महावीर की महत्त्वपूर्ण देन है। ईसा के बाद होनेवाले जैन दार्शनिकों ने जैन तत्त्व विचार को अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिपादित किया और भगवान् महावीर को उस वाद का उपदेष्टा बताया। भगवान् महावीर से लेकर अद्य प्रभृति जैन दार्शनिकों ने अनेकान्त दृष्टि का विकास किया है। भगवान् महावीर के दस स्वप्नों में एक चित्र-विचित्र पुस्कोकिल के स्वप्न का भी उल्लेख है। इससे यह सम्भावना की जा सकती है कि सूत्रकार ने चित्र-विचित्र विशेषण का प्रयोग अनेकान्त को ध्वनित करने के लिए