________________ सत्य व्याख्या का द्वार : अनेकान्त संसार की संरचना के मूल में तत्त्व का द्वैत है। आगम साहित्य में स्थान-स्थान पर इस दैतवादी मान्यता का उल्लेख है। स्थानांग सूत्र में बतलाया गया है कि लोक में जो कुछ है वह सब दो पदों में अवतरित है। वे पदार्थ परस्पर विरोधी होते हैं। विरोध अस्तित्व का सार्वभौम नियम है / विरोध के बिना अस्तित्व ही नहीं होता है। संसार में ऐसी कोई भी अस्तित्ववान् वस्तु नहीं है जिसमें विरोधी युगल एकसाथ न रहते हों। वस्तु/द्रव्य में अनन्त धर्म होते हैं यह कोई महत्त्वपूर्ण स्वीकृति नहीं है किन्तु एक ही वस्तु में एक ही काल में अनन्त विरोधी धर्म युगपत् रहते हैं यह जैन दर्शन/अनेकान्त दर्शन का महत्त्वपूर्ण अभ्युपगम है। अनेकान्त सिद्धान्त के उत्थान का आधार ही द्वैतवादी अवधारणा/विरोधी युगलों के सहावस्थान की स्वीकृति है। यदि वस्तु में विरोधी धर्म नहीं होते तो अनेकान्त स्वीकृति का कोई विशिष्ट मूल्य ही नहीं होता। अनेकान्त को परिभाषित करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं- “एक ही वस्तु सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य स्वभाववाली है / ऐसी एक ही वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी शक्ति युक्त धर्मों को प्रकाशित करनेवाला अनेकान्त है।" आचार्य अकलंक एकान्त के प्रतिक्षेप कथन के द्वारा अनेकान्त को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि वस्तु सत् ही है. असत् ही है, इस प्रकार के एकान्तवाद को निरसित करनेवाला अनेकान्त है। - वस्तु अनेक धर्मों का समुदाय मात्र नहीं है किन्तु परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाला अनेक धर्मों का आधार है। द्रव्य अनन्त धर्मों की समष्टि है / वे धर्म परस्पर विरोध है इसलिए द्रव्य का द्रव्यत्व बना हुआ है / यदि सब धर्म अविरोधी होते तो द्रव्य का द्रव्यत्व समाप्त हो जाता। विरोधी धर्मों का युगपत् सहावस्थान होना द्रव्य का स्वभाव है। द्रव्य में शाश्वत और अशाश्वत, एक और अनेक, सामान्य और विशेष, वाच्य और अवाच्य आदि विरोधी युगल विद्यमान हैं। उन सबमें सह-अस्तित्व है / विरोधी और उनका सह-अस्तित्व विश्व व्यवस्था का अटल नियम है / जैन दर्शन का यह व्यापक अभ्युपगम है कि 'यत्-सत्-तत्-सप्रतिपक्षम्' सत् प्रतिपक्ष युक्त होता है और पक्ष