________________ 240 / आर्हती-दृष्टि का भी प्रयत्न करते थे। दर्शन का उद्देश्य मात्र बौद्धिक आस्था की प्राप्ति नहीं था। मैक्समूलर ने कहा है कि भारत में तत्त्व-चिन्तन ज्ञान की उपलब्धि के लिए नहीं है बल्कि उस परम उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया जाता था जिसके लिए मनुष्य का इस लोक में प्रयत्न करना सम्भव है। इस दृष्टि से भारतीय चिन्तनधारा में ज्ञान का स्वरूप, उसके भेद-प्रभेद आदि का निरूपण अपने केन्द्रीय तत्त्व को ध्यान में रखकर ही हुआ है। ज्ञान के विषय में उपनिषद् में ब्रह्म विद्या के प्ररूपण के प्रसंग में ज्ञान-मीमांसीय तत्त्व उपलब्ध होते हैं। अनुभव की वस्तुओं के लिए उपनिषदों में 'नाम-रूप' का प्रयोग हुआ है / मनस और ज्ञानेन्द्रियों का व्यापार. 'नामरूप के दायरे तक ही सीमित है। इन्द्रिय ज्ञान अनिवार्यतः परिच्छिन्न वस्तु का ही होता है। ब्रह्मज्ञान इन्द्रियज्ञान से उच्चकोटि का है। ब्रह्म अज्ञेय नहीं है। उपनिषद् का परम उद्देश्य ब्रह्म का ज्ञान कराना ही है। मुण्डक उपनिषद् में सारे ज्ञान को दो वर्गों में विभक्त किया गया है—परा विद्या एवं अपरा विद्या। परा विद्या सर्वोत्कृष्ट है। इससे परब्रह्म का साक्षात्कार होता है तथा अपरा विद्या के द्वारा सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान होता है। - वेदान्त परम्परा में अध्यात्म विद्या, आत्म विद्या का मूल है। मुण्डकोपनिषद् में शिष्य गुरु से पूछता है-भगवन् ! ऐसा कौन-सा तत्त्व है जिसको जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है। परम तत्त्व की जिज्ञासा ज्ञान उत्पत्ति का मुख्य आधार है। सत्य ज्ञान स्वरूप ब्रह्म ही परम तत्त्व है।" ब्रह्म पराविद्यागम्य है। अपरा विद्या सांसारिक मार्गानुसारी है / वह भवभ्रमण का कारण है / श्रेय और प्रेय चिरन्तन काल से मनुष्य के लक्ष्य बनते रहे हैं। विद्यावान् धीरपुरुष ज्ञान चेतना के द्वारा प्रेय को त्यागकर श्रेय को स्वीकार करता है जबकि मंद त्वरा से प्रेरित होकर प्रेय का वरण करता है। प्रेय मार्ग तमस की ओर ले जाता है। श्रेय मार्ग प्रकाश का पुञ्ज है। श्रेय मार्ग अर्थात् विद्या, प्रेय अर्थात् अविद्या / उपनिषदों के अनुसार अविद्या वह है जिसका अन्तिम परिणाम अन्धकार है तथा विद्या वह है, जो प्रकाश में ले जाती है। इसलिए उपनिषद् का ऋषि गाता है–तमसो मा ज्योतिर्गमय / विद्या बन्धन से मुक्त करवाती है जबकि अविद्या बन्धन का हेतु है। संसार के सम्पूर्ण ज्ञान में पारंगत होकर भी व्यक्ति ब्रह्मविद् नहीं हो सकता तथा एक ब्रह्म को जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है। जैन आगम आचारांग में भी कहा गया है जो एक को जानता है वह सबको जान लेता है। उपनिषद् दर्शन के अनुसार सांसारिक ज्ञान में वैदुष्य-प्राप्त