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________________ विभज्यवाद / 179 जैनदर्शन स्पष्टत: विभज्यवादी है। उसका कोई भी कथन विभज्यवाद के बिना नहीं हो सकता है। सूत्रकृताङ्ग में इसका स्पष्ट उल्लेख है। 'भिक्खु विभज्यवायं वियागरेज्जा' जैसा कि योग दर्शन में चार प्रकार के प्रश्नों का उल्लेख प्राप्त होता है जैन दर्शन में ऐसा नहीं है। वहां सिर्फ विभज्यवाद का ही उल्लेख है ।जैनदर्शन एकांशवादी नहीं है तथा बुद्ध की तरह भगवान् महावीर के पास कोई अव्याकृत प्रश्न भी नहीं था। अतः स्थापनीय प्रश्न जैन के यहाँ हो ही नहीं सकता। प्रतिप्रश्न का समाहार विभज्यवचनीय में ही हो जाता है। अतः जैन के अनुसार सारे प्रश्न ही विभज्यवचनीय हैं / बिना विभाग के किसी प्रश्न को समाहित नहीं किया जा सकता तथा सत्य की प्राप्ति भी नहीं सकती। इस अवधारणा का समर्थन सूत्रकृताङ्ग से हो जाता है। वहां 'वियागरेज्जा' शब्द का जो प्रयोग हुआ है वह ध्यान देने योग्य है। वियागरेज्जा का अर्थ है व्याकरणीय अर्थात् सारे ही प्रश्न विभज्यव्याकरणीय हैं तथा दूसरा उल्लेख भी इसी में प्राप्त होता है। ‘णयासिसावाद वियागरेज्जा' चूर्णिकार वृत्तिकार इसका अर्थ करते हैं कि 'मुनि आशीर्वचन न कहें' किन्तु इसका पाठान्तर प्राप्त होता है। ‘ण यासियावाय' इसके आधार पर डॉ. ए. एन. उपाध्ये इसका अर्थ अस्याद्वाद अर्थात् मुनि स्याद्वाद रहित (वचनों को) न बोले ।डॉ. नथमल टांटिया भी / इस अर्थ का समर्थन करते हैं। - विभज्यवाद अनेकान्तवाद का पूर्वरूप है / अनेकान्तवाद उसका विस्तारमात्र है। विभज्यवाद का प्रयोग सूत्रकृताङ्ग के अतिरिक्त अन्य जैन ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होता। जबकि बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर इस शब्द का प्रयोग हुआ किन्तु इससे यह अनुमान नहीं करना चाहिए कि जैन दर्शन ने विभज्यवाद का अनुगमन नहीं किया / जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि जैन दर्शन पूर्णतः विभज्यवादी है। उसने विभज्यवाद का विस्तार अनेकान्तवाद, नयवाद, निक्षेपवाद के रूप में किया। वस्तुतः विभज्यवाद का मूल भी अनेकान्त है / नयवाद, निक्षेपवाद की सारी पद्धति. विभज्यवाद पर ही आधारित है। जितने भी सापेक्ष कथन हैं वह विभज्यवाद है। सिद्धसेन दिवाकर ने कहा अपेक्षा से युक्तकथन स्वसमय है / अपेक्षा निरपेक्ष परसमय है। अतएव विभज्यवचन जैन दर्शन है विभज्येतर परसमय है। वस्तु का स्वरूप विभज्यवाद के द्वारा ही निर्धारित हो सकता है / संश्लेषण की अपेक्षा वस्तु पर्यायरहित है। विश्लेषण की अपेक्षा द्रव्यरहित है यह हेमचन्द्राचार्य का कथन है / ' वर्तमान विज्ञान भी ज्ञान का आधार विभज्यवाद को मानता है। उसके अनुसार / सर्वथा कोई भी ज्ञान प्रामाणिक या अप्रामाणिक नहीं है। एक सीमित दायरे, एक
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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