________________ 180 / आर्हती-दृष्टि विशिष्ट अपेक्षा से वस्तु का स्वरूप अन्य प्रकार का है। वही एक अन्य अपेक्षा से प्रथम से अन्य प्रकार का हो जाता है। विकास का आधारभूत तत्त्व विभज्यवाद है। हम देखते हैं कि एक ही वस्तु का ज्ञान मनुष्य जाति को एक प्रकार का हो रहा है, उसी वस्तु का ज्ञान पशु जगत् को पृथक् रूप से हो रहा है। उदाहरणार्थ- वस्तु का रंग / मनुष्य को वस्तु के विभिन्न रंग दिखाई देते हैं जबकि पशु में रंग-विवेक करने का ज्ञान ही नहीं होता है। इस स्थिति में किस ज्ञान को सत्य माने, किसको असत्य? दोनों ही अपने ज्ञान से अपना व्यवहार सिद्ध करते हैं। अतः दोनों ही अपनी अपेक्षा से सत्य है। किसी एक को सत्य या मिथ्या नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार की समस्याओं का समाधान विभज्यवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है / अतएव विभज्यवादशून्य व्यवहार ही असम्भव है / इसलिए जैन दर्शन पूर्णतः विभज्यवादी है जो कि समीचीन है / सत्य का प्रकटन वाणी से ही सम्भव है / वाणी असीम को एक साथ प्रकट करने में असमर्थ है / अतः वह विभज्यवाद का सहारा लेकर अपनी अपूर्णता को पूर्ण करने में समर्थ हो जाती है।