________________ स्याद्वाद जैन दर्शन की चिन्तन-शैली का नाम अनेकान्त एवं प्रतिपादन-शैली का नाम स्याद्वाद है / अनेकान्त परिकल्पित नहीं है अपितु यह वस्तु का यथार्थ स्वरूप है अर्थात् वह यथार्थ आधारित सिद्धान्त है। ज्ञेय अनन्त है। ज्ञान भी अनन्त है किन्तु वाणी अनन्त नहीं है। ज्ञान शक्ति असीम है किन्तु शब्द-शक्ति सीमा में आबद्ध है। अतः अनन्त ज्ञान एक क्षण में अनन्त ज्ञेय को जान सकता है किन्तु वाणी अनन्त ज्ञेय को अभिव्यक्त नहीं कर सकती। सम्पूर्ण सत्यों को युगपत् अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य वाणी में नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में ही स्याद्वाद सिद्धान्त का उद्भव हुआ। स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की आवश्यकता के मूलतः चार कारण हैं—(१) वस्तु तत्त्व की अनन्त धर्मात्मकता, (2) मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों की सीमितता / (3) मानवीय ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता, (4) भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सीमितता एवं सापेक्षता / वस्तुतः उक्त तथ्य ही स्याद्वाद सिद्धान्त के उद्भव के प्रेरक हैं / स्याद्वाद का उद्गम अनेकान्त वस्तु है / तस्वरूप वस्तु के यथार्थ ग्रहण के लिए अनेकान्त दृष्टि है। स्याद्वाद उस दृष्टि को वाणी द्वारा व्यक्त करने की पद्धति है। स्याद्वाद स्वरूप एवं परिभाषा - स्याद्वाद शब्द स्यात् और वाद इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। स्यात् शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में जितनी भ्रान्ति दार्शनिकों की रही है उतनी अन्य किसी शब्द के सम्बन्ध में सम्भवतः नहीं रही है। विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा में स्यात् का अर्थ शायद, सम्भवतः, कदाचित् और अंग्रेजी भाषा में Probable, Maybe, Perhaps, Some how आदि किया है और इन्हीं अर्थों के आधार पर स्याद्वाद को संशयवाद, सम्भावनावाद या अनिश्चयवाद समझने की भूल की जाती रही है। शंकर से लेकर आधुनिक युग तक के विद्वान् इसके अर्थ-निरूपण में भ्रामक रहे हैं। जैन आचार्यों ने स्यात् शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में किया है। यदि स्याद्वाद के आलोचक विद्वानों ने स्याद्वाद सम्बन्धी किसी मूल ग्रन्थ का पारायण किया होता तो यह भ्रान्ति उन्हें सम्भवतः नहीं होती। स्यात् शब्द का अर्थ - स्याद्वाद में प्रयुक्त स्यात् शब्द तिङ्न्त पद नहीं है। तिङ्न्त प्रतिरूपक अव्यय