________________ 182 / आर्हती-दृष्टि है। सम्मन्तभद्र, विद्यानन्द अमृतचन्द्र, मल्लिषेण आदि सभी जैनाचार्यों ने स्यात् शब्द को निपात या अव्यय माना है / आप्त मीमांसा में इसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि वाक्येष्वनेकान्तद्योति गम्यं प्रति विशेषणम्। स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि / - स्यात् शब्द निपात है, जो अर्थ के साथ सम्बन्धित होने पर वाक्य में अनेकान्त का द्योतक है तथा गम्य अर्थ का विशेषण होता है / आचार्य अमृतचन्द्र ने भी स्यात् शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि स्यात् एकान्तता का निषेधक, अनेकान्त का प्रततिपादक तथा कथंचित् अर्थ का द्योतक एक निपात है—“सर्वथात्व निषेधकोऽनेकांतता द्योतकः कथंचिदर्थे स्यात् शब्दो निपातः स्यादित्यव्ययमनेकांतद्योतकम्।' स्यात् शब्द के प्रशंसा, अस्तित्व, विवाद, विचारणा, अनेकान्त, संशय, प्रश्न आदि अनेक अर्थ हैं / जैन दर्शन में इसका प्रयोग अनेकान्त अर्थ में होता है / इस प्रकार यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि जैन विचारकों की दृष्टि में स्यात् शब्द संशयपरक न होकर निश्चयात्मक अर्थ का द्योतक है। वाद शब्द का अर्थ 'कथन विधि' है। इस प्रकार स्याद्वाद सापेक्ष कथन पद्धति का सूचक है। भिक्ष न्याय कर्णिका में स्याद्वाद को परिभाषित करते हुए कहा गया, 'अर्पणानपणाभ्यामनेकांतात्मकार्थप्रतिपादनपद्धतिः स्याद्वादः' प्रधानता एवं गौणता से अनेकान्तात्मक वस्तु का प्रतिपादन करनेवाली पद्धति स्याद्वाद है / वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में न्यस्त है। वस्तु विरोधी धर्मयुगलों का समवाय है। एक ही वस्तु नित्य भी है, अनित्य भी है। सत् भी है, असत् भी है। स्याद्वाद की प्राचीनता ___ भगवान् महावीर ने स्याद्वाद की पद्धति से अनेक प्रश्नों का समाधान किया है। उसे आगम युग का अनेकान्त या स्याद्वाद कहा जाता है। दार्शनिक युग में उसी का विस्तार हुआ किन्तु उसका मूल रूप नहीं बदला। भगवती सूत्र में अनेक स्थानों पर स्याद्वाद का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। जब गौतम भगवान् से पूछते हैं-भगवन् ! जीव शाश्वत है या अशाश्वत / भगवान् ने कहा-द्रव्यार्थिक अपेक्षा से शाश्वत एवं पर्यायार्थिक अपेक्षा से अशाश्वत है / 'गोयमा। जीवा सिय सासया, सिय असासया।' यहाँ सिय का अर्थ स्यात् है जो अपेक्षा अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स्याद्वाद की नींव अपेक्षा है / स्याद्वाद अपेक्षा भेद से विरोधी धर्म युगलों के