________________ 202 / आर्हती-दृष्टि तो गगनाम्भोजवत् किसी का भी अस्तित्व नहीं हो सकता अथवा सबकी प्राप्ति युगपद् होगी। पुरुष का अर्थ आत्मा भी कर सकते हैं / अतः इस जगत् का कारण पुरुष है। ये पांचों ही वादी एक-दूसरे की उपेक्षा करके जगत् कर्तृत्व में स्वयं अपनी ही अहमन्यता प्रकट करते हैं। अपने से इतर का निराकरण कर देने से वस्तुतः इनकी सत्ता भी कायम नहीं रह सकती / अतएव आचार्य सिद्धसेन का कहना है कि इतर . निरपेक्ष काल आदि एकान्तवाद अयथार्थ है / स्वतन्त्र रूप से इनके द्वारा जगत् की व्यवस्था नहीं की जा सकती। किन्तु जब ये ही सापेक्ष हो जाते हैं एकान्त आग्रह को छोड़ देते हैं तब जगत् की कारणता की व्याख्या में इनका महत्त्वपूर्ण योग होता है। परस्पर सापेक्ष होकर मिथ्या परिधि को त्याग कर सम्यक् परिधि में आ जाते हैं। कालो सहाव णियई पुवकायं पुरिसकारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेवा समासओ होंति सम्मतं / / - यद्यपि काल आदि के समवाय से कार्य पैदा होता है किन्तु इनमें भी कारणों की मुख्यता गौणता है / आत्मा ही मुख्य कारणं है वही इन सबका परस्पर समवाय करवाती - कालो वा कारणं राज्ञः राजा वा कारणं कालः। इति संशयो मा भूत राजा कालस्य कारणम्॥ आत्मा ही मुख्य कारण है। विज्ञान के जितने चमत्कार हैं वे सब पुरुषकृत हैं नियति भी पुरुष के अधीन हो गई है। श्वेताश्वतरोपनिषद में भी ब्रह्मर्षियों ने जगत् कारण की खोज की है 'कालः स्वभाव नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या। संयोग एषां न त्वात्मभावदात्माप्यनिशो सुखदुःखहेतुः / / ' ब्रह्मर्षि ब्रह्म को जगत् का कारण मानते हैं / इस प्रकार प्राचीनकाल से ही जगत् के कारण की व्याख्या में चिन्तन हो रहा था। जैन दार्शनिकों ने सम्पूर्ण कारणों के समवाय से ही कार्य की उत्पत्ति स्वीकार की है वे कारण सापेक्ष होकर ही कार्य को पैदा कर सकते हैं।