________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की भेदरेखा / 325 आगममूलक तार्किक इस दूसरे प्रयल ने मति, श्रुन के भेद को तो स्वीकार कर लिया किन्तु उनकी भेदरेखा स्थिर करने का व्यापक प्रयल किया गया। प्रथम परम्परा जो आगम को ही श्रुतज्ञान मानती थी इसके अतिरिक्त दूसरी परम्परा ने आगम के अतिरिक्त को भी श्रुतज्ञान के रूप में स्वीकार किया। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा इन्दियमणोनिमितं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं / निययत्युत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं / . विशेषा. भा. गा. 96 इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला श्रुतानुसारी ज्ञान जो, स्वयं में प्रतिभासित घट, पट आदि पदार्थों को समझाने में समर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान है। ज्ञान-बिन्दु में मति-श्रुत को परिभाषित करते हुए कहा गया है-'मतिज्ञानत्वं श्रुताननुसार्यनतिशयितज्ञानत्वम् अवग्रहादिक्रमवदुपयोगजन्यज्ञानत्वं वा, श्रुतं तु श्रुतानुसार्येव।' ___ जो श्रुतानुसारी होता है वह श्रुतज्ञान है तथा जो श्रुताननुसारी अर्थात् श्रुतानुसारी नहीं होता वह मतिज्ञान है। . . जब श्रुतानुसारी को श्रुतज्ञान कहा गया तो शंका करते हुए पूछा गया कि शब्दोल्लेखी श्रुतज्ञान है तो मतिज्ञान का भेद अवग्रह ही मतिज्ञान होगा। शेष ईहा आदि श्रुतज्ञान होंगे क्योंकि वे भी शब्दोल्लेख युक्त हैं / इस प्रकार मतिज्ञान का लक्षण अव्याप्त दोष से दूषित होगा तथा श्रुतज्ञान का लक्षण मतिज्ञान के भेदों में चले जाने से अतिव्याप्त लक्षणाभास से दूषित है / समाधान की भाषा में आचार्यों ने कहा कि ईहा आदि साभिलाप है किन्तु सशब्द हो जाने मात्र से वह श्रुतज्ञान नहीं है। जो श्रुतानुसारी साभिलाप ज्ञान है वही श्रुतज्ञान है। धारणात्मक ज्ञान के द्वारा वाच्य-वाचक सम्बन्ध संयोजन से जो ज्ञान होता है वह श्रुतानुसारी है। अतः मतिज्ञान साभिलाप होने पर भी श्रुतानुसारी न होने पे श्रुतज्ञान नहीं है / अतः मति का लक्षण अव्याप्त दोष से तथा श्रुत का लक्षण अतिव्याप्त दोष से दूषित नहीं है। साभिलाप अवग्रह आदि श्रुतनिश्रित मतिज्ञान है / वे श्रुतानुसारी नहीं है तथा मतिज्ञान साभिलाप एवं अनभिलाप उभय प्रकार का है, किन्तु श्रुतज्ञान तो साभिलाप ही होता है। श्रुत-निश्रित, अश्रुतनिश्रित तक मतिज्ञान है, जहां श्रुतानुसारित्व शुरू होता है वहां श्रुतज्ञान होता है।