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________________ 324 / आर्हती-दृष्टि मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान की भेदरेखा प्राचीन कर्मशास्त्र में ज्ञानावरण कर्म की प्रकृतियों के उल्लेख के समय मतिज्ञानावरण एवं श्रुतज्ञानावरण—इन दो प्रकृतियों का पृथक्-पृथक् उल्लेख है। अतः इस कथन से स्पष्ट है कि इनके ज्ञान भी अलग-अलग हैं / प्राचीन परम्परा से ही मतिज्ञान एवं श्रुतिज्ञान को पृथक् स्वीकार किया गया है और आज भी उनका वही रूप स्वीकृत है, परन्तु इन दोनों का स्वरूप परस्पर इतना सम्मिश्रित है कि इनकी भेदरेखा करना कठिन हो जाता है / जैन-परम्परा में इनकी भेदरेखा स्थापित करने के लिए तीन प्रयत्न हुए 1. आगमिक, 2. आगममूलक तार्किक, 3. शुद्ध तार्किक। . आगमिक प्रयत्न आगम परम्परा में इन्द्रिय मनोजन्य ज्ञान अवग्रह आदि भेदवाला मतिज्ञान था तथा अंग-प्रविष्ट एवं अंग-बाह्य के रूप में प्रसिद्ध लोकोत्तर जैन-शास्त्र श्रुतज्ञान कहलाते थे। अनुयोगद्वार तथा तत्त्वार्थसूत्र में पाया जानेवाला श्रुतज्ञान का वर्णन इसी प्रथम प्रयत्न का फल है / आगमिक परम्परा में अंगोपांग के ज्ञान को ही श्रुतज्ञान कहा है, अंगोपांग के अतिरिक्त सारा मतिज्ञान है। अंगोपांग से भिन्न वेद, व्याकरण, साहित्य, शब्द संस्पर्शी ज्ञान, शब्द-संस्पर्शरहित ज्ञान सारा ही मतिज्ञान है / तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि किसी व्यक्ति में एक, दो, तीन और चार ज्ञान एक साथ हो सकते ___उमास्वाति के बाद की परम्परा ने ऐसा स्वीकार नहीं किया है। उसके अनुसार, किसी भी प्राणी में कम-से-कम दो ज्ञान तो होंगे ही। तत्त्वार्थ के एक ज्ञान के उल्लेख का तात्पर्य है-श्रतज्ञान अंगोपांग रूप है, वह सबमें हो यह जरूरी नहीं है। अतः अंगोपांगरहित सारा ज्ञान ही आगम परम्परा में मतिज्ञान था और इस अपेक्षा से व्यक्ति में एक ज्ञान माना जा सकता है। असोच्चा केवली का उल्लेख भी शायद इस एक ज्ञान की ही फलश्रुति है। जिसने अंगोपांग का श्रवण अध्ययन नहीं किया हो वह मतिज्ञानी है, वह जब केवली हो जाता है तब उसे 'असोच्चा केवली' कह दिया जाता हो, ऐसी सम्भावना की जा सकती है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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