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________________ 222 / आर्हती-दृष्टि नाम 'गणिपिटक' भी है। पिटक शब्द का प्रयोग बौद्ध-शास्त्रों के लिए भी प्रचलित है। इससे अनुमान होता है कि श्रमण-परम्परा में आप्त पुरुषों की वाणी के संग्रह को पिटक कहा जाता था। समय के प्रवाह में आगम की संख्या में वृद्धि होती गयी। कालक्रम के अनुसार आगमों का पहला वर्गीकरण समवयांग में प्राप्त है। वहां केवल द्वादशांगी का निरूपण हुआ। दूसरा वर्गीकरण अनुयोग द्वार में मिलता है। वहां केवल द्वादशांगी का नामोल्लेख मात्र है। तीसरा वर्गीकरण नन्दी का है। नन्दी का वर्गीकरण आगम की सारी शाखाओं का निरूपण करने के ध्येय से हुआ है / आगमों की संख्या के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। उनमें तीन मुख्य हैं--(१) 84 आगम, (2) 45 आगम, एवं (3) 32 आगम / श्रीमज्जयाचार्य ने 84 आगमों का उल्लेख किया है। उनमें 12 के नाम नन्दी में, 6 का उल्लेख स्थानांग एवं 5 का उल्लेख व्यवहार-सूत्र में है / श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय 45 आगम तथा स्थानकवासी एवं तेरापंथी सम्प्रदायी 32 आगमों को स्वीकार करते हैं। दिगम्बर आम्नाय में 12 अंग, 14 अंगबाह्य एक समय स्वीकृत थे किन्तु उनके अनुसार वर्तमान में अंगज्ञान सर्वथा लुप्त हो गया किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार १२वें अंग दृष्टिवाद का लोप हुआ है। 11 अंग आज भी उपलब्ध हैं एवं उनको मान्य हैं। आगम स्वीकृति का मानदण्ड ग्रन्थों की संख्या में विकास होने लगा। तब एक प्रश्न उठा किन ग्रन्थों को आगम माना जाए। सभी को आगम स्वीकार नहीं किया जा सकता है / तब एक कसौटी का निर्धारण हुआ। गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली एवं अभिन्नदशपूर्वी कथित वचन ही आगम कहे जा सकते हैं।" अतएव जब दशपूर्वी नहीं रहे तब आगम की संख्या वृद्धि भी स्वतः स्थगित हो गयी। यद्यपि श्वेताम्बर-परम्परा में आगम रूप में मान्य कुछ प्रकीर्णक ऐसे भी हैं जो उस काल के बाद भी आगम में सम्मिलित कर लिए गये हैं। ऐसा कुछ विशेष स्थिति में हुआ है / जैनागमों की संख्या जब बढ़ने लगी तब उनका वर्गीकरण भी आवश्यक हो गया। अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य के रूप में आगम का वर्गीकरण हुआ। भगवान् महावीर के मौलिक उपदेश का गणधरकृत संग्रह अंग एवं अन्य को अंगबाह्य कहा गया। अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य आगम के ये दो भेद वक्ता की अपेक्षा से हुए हैं। अपने स्वभाव के अनुसार प्रवचन की प्रतिष्ठा करना ही जिसका फल है, ऐसे परम शुभ तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से सर्वज्ञ, सर्वदशी, परमर्षि अरहन्त भगवान् ने जो कुछ कहा तथा उन वचनों को अतिशयसम्पन्न वचनऋद्धि तथा बुद्धि-ऋद्धि से परिपूर्ण तीर्थंकर भगवान् के गणधरों के द्वारा जिनकी रचना हुई वे
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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