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________________ विशेषावश्यकभाष्य : एक परिचय | 223 आगम अंगप्रविष्ट कहलाये तथा जिन आचार्यों की वचनशक्ति एवं मतिज्ञान की शक्ति परम प्रकृष्ट एवं आगमश्रुतज्ञान अत्यन्त विशुद्ध था, उन गणधरों के पश्चातवर्ती आचार्यों के द्वारा काल, संहनन, आयु आदि दोषों से शक्ति अल्प हो गयी है उन शिष्यों पर अनुग्रह करने के लिए जिन आगमों की रचना की उनको अंगबाह्य कहा जाता है।" आचारांग, सूत्रकृतांग आदि 12 अंग हैं / अवशिष्ट अंगबाह्य कहलाये। आगे चलकर अंगबाह्य ही उपांग, प्रकीर्णक, छेदसूत्र, मूलसूत्र आदि में विभक्त हो गये। उपांगों की संख्या भी 12 है / 11 अंग स्वतः प्रमाण हैं, बाकी आगमों का प्रामाण्य परतः है। आवश्यक सूत्र का महत्त्व : आगम शृंखला में आवश्यक सूत्र का अतिविशिष्ट स्थान है / नन्दी सूत्र में अंगबाह्य का विभाग आवश्यक एवं आवश्यक-व्यतिरिक्त के आधार पर हआ है।" इस विभाग से ही आवश्यक का महत्त्व स्वतः ज्ञात हो जाता है। वहीं आवश्यक के 6 विभाग बतलाए हैं—सामायिक, चतुर्विशति, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान / आगमों के अध्ययन का भी क्रम था। पठनक्रम में सर्वप्रथम आवश्यक सूत्र तदनन्तर दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि पढ़े जाते थे। अध्ययन-क्रम व्यवस्था में आवश्यक को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। आवश्यक अर्थात् अवश्यकरणीय। विशेषावश्यक भाष्य में आवश्यक के दश पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं। श्रमण अन्य आगम पढ़े या न पढ़े किन्तु आवश्यक तो अनिवार्य रूप से प्रतिदिन दो बार करणीय है। आवश्यक सूत्र अंगागम जितना तो प्राचीन है / जैन निर्ग्रन्थों के लिए प्रतिदिन करणीय आवश्यक क्रिया सम्बन्धी पाठ इसमें है / आवश्यक के छहों अध्ययनों के नाम धवला में अंगबाह्य में परिगणित किये हैं / इस उल्लेख से भी आवश्यक सूत्र की प्राचीनता स्वतः सिद्ध है। आवश्यक क्रिया की महत्ता अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में साधक के लिए कुछ साधना नित्य-प्रति अवश्य करणीय होती है। हर धर्म दर्शन में वैसी क्रियाओं का उल्लेख एवं प्रचलन प्राप्त है। वैदिक समाज में संध्या का, पारसी लोगों में खोर-देह-अवस्ता' का, यहूदी एवं ईसाइयों में प्रार्थना का और मुसलमानों में नमाज का जैसा महत्त्व है जैन समाज में वैसा ही महत्त्व आवश्यक का है। जैन समाज की दिगम्बर एवं श्वेताम्बर भेद से दो मुख्य धाराएं हैं। आवश्यक क्रिया का करने का प्रचलन श्वेताम्बर समाज में है, वैसा दिगम्बर परम्परा में नहीं है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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