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________________ मनोविज्ञान के सन्दर्भ में दस संज्ञाएं / 363 के साथ तुलनात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है / मैक्डूगल ने मूल प्रवृत्तियां 14 मानी हैं। उन मूल प्रवृत्तियों के उद्दीपन में सहायक सामग्री एवं संवेग हेतभूत बनते हैं। पलायन, भोजनान्वेषण, युयुत्सा, जिज्ञासा, विधायकता, संचय, विकर्षण, आत्म-गौरव, संघ-प्रवृत्ति, दीनता, पुत्रकामना, कामभावना, शरणागति, हास्य ये मूल प्रवृत्तियां हैं / भय, भूख, क्रोध, आश्चर्य, कृतिभाव, अधिकारभावना, घृणा, आत्माभिमान, एकाकीपन, आत्महीनता, वात्सल्य, कामुकता, करुणा, उल्लास ये क्रमशः इनके उद्दीपक संवेग हैं। इन प्रवृत्तियों से व्यक्ति का सम्पूर्ण आचार-व्यवहार प्रतिबन्धित है। - मानसिक परिवर्तन केवल उद्दीपन और परिवेश के कारण नहीं होते। उनमें नाड़ी संस्थान, जैविक विद्युत, जैविक रसायन, अन्तस्रावी-ग्रन्थियों के स्रावों का भी योग रहता है। इसके अतिरिक्त परिवर्तन में हेतुभूत बनता है हमारा सूक्ष्म जगत् / स्थूल जगत् से हम परिचित हैं। कर्मशास्त्र हमारे सूक्ष्म अज्ञात जगत् की व्याख्या करनेवाला है। मनोविज्ञान की अद्यप्रवृत्ति असमाहित जिज्ञासाओं का समाधान कर्म के क्षेत्र में चिन्तन से प्राप्त हो जाता है। भारतीय दर्शनों में व्यक्ति के आचरण व्यवहार का मुख्य घटक इस कर्म को स्वीकार किया है। कर्म की सूक्ष्म व्याख्या जैन-आगम दर्शन-साहित्य में जिस विस्तार से उपलब्ध है अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। मनोविज्ञान व्यक्तित्व व्याख्या में इन मूल-प्रवृत्तियों को प्रमुखता से व्याख्यायित करता है। जैन-दर्शन 10 संज्ञाओं के आधार पर इनकी व्याख्या करता है / परिवर्तन की प्रक्रिया में कर्म के स्पन्दन, मन की चंचलता, शरीर के संस्थान ये सभी सहभागी बनते हैं। कर्मशास्त्र के अनुसार मोहनीय कर्म के विपाक से व्यक्ति का चरित्र और व्यवहार बदलता है। मोहनीय-कर्म की प्रवृत्तियों एवं उनके विपाकों के साथ मूलप्रवृत्तियों और मूल-संवेगों की तुलना की जा सकती है। _ संज्ञाएं आत्मा और मन की प्रवृत्तियां हैं / वे कर्म द्वारा प्रभावित होती हैं / कर्म आठ हैं। उनमें प्रमुख सेनापति मोहकर्म है। चारित्र मोह के द्वारा प्राणी में विविध मनोवृत्तियां प्रादुर्भूत होती है। भय, घृणा, हास्य, कामभावना, संग्रह झगड़ालूपन भोगासक्ति में मूल कारणभूत मोह बनता है / बाह्य अथवा उद्दीपक सामग्री तो मात्र निमित्तभूत बनती है। कभी-कभी ऐसा भी घटित होता है कि बाह्य कारणों की अनुपस्थिति में भी व्यक्ति क्रोधित, उदास देखा जाता है। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक एवं ओघ इन दस
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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