________________ 48 / आर्हती-दृष्टि .. जो दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं उनके मत में संसारी-आत्मा के ज्ञान, सुख-दुःख इत्यादि गुण शरीर मर्यादित आत्मा में ही अनुभूत होते हैं, शरीर के बाहर वाले आत्म प्रदेशों में नहीं / इस प्रकार संसारी आत्मा को व्यापक माना जाये अथवा शरीर-व्यापी, संसार का भोग तो शरीर व्यापी आत्मा ही करती है। संसारावस्था तो शरीरस्थित आत्मा में ही है। नैयायिक विद्वान् श्रीधर ने न्यायकंदली में कहा है- . 'सर्वगतत्वेऽप्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वम्, नान्यत्र, शरीरस्योपभोगायतनत्वात् / अन्यथा तस्य वैयर्थ्यादिति / ' ___ जैन दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर-व्यापी है। स्थानाङ्ग सूत्र में-धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश तुल्य माने गये हैं अर्थात् ये चारों द्रव्य असंख्य प्रदेशी हैं अतः व्याप्त होने की क्षमता के अनुसार आत्मा लोक के समान विराट् है। केवली समुद्घात के समय आत्मा कुछ समय के लिए व्यापक बन भी जाती है। भगवती सूत्र में जीवास्तिकाय को लोक-प्रमाण कहा गया है। प्रदेश संख्या की दृष्टि से धर्म, अधर्म, 'लोकाकाश तथा एक जीव समतुल्य हैं किन्तु अवगाह की अपेक्षा से ये समान नहीं है / धर्मास्तिकाय आदि पूरे लोक में व्याप्त है। ये तीनों द्रव्य गतिशन्य तथा निष्क्रिय हैं। इनमें ग्रहण, उत्सर्ग नहीं होता। किसी प्रकार की प्रतिक्रिया भी इनमें नहीं होती इसलिए इनके परिमाण में कोई परिवर्तन नहीं देखा जाता। संसारी जीवों में पुद्गल का ग्रहण होता है। उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया होती है अतः उनका परिमाण सदा एक सरीखा नहीं रहता। उसमें संकोच-विकोच होता रहता है / कार्मण शरीर युक्त आत्मा में संकोच-विकोच होता है। कार्मण शरीर के चले जाने पर संकोच-विकोच भी नहीं होता। मुक्त आत्मा में कार्मण शरीर के अभाव के कारण ही संकोच-विकोच नहीं होता है / संसारी आत्मा कार्मण शरीर युक्त है अतः उसमें संकोच-विकोच होता रहता है / जैन के अनुसार समुद्घात के समय को छोड़कर आत्मा शरीर परिमाण है गुरुलघुदेहपमाणो अत्ता चत्ता हु सत्तसमुघायं। ववहारा णिच्छदो असंखदेसो हु सो णेओ। नयचक्र-१२१ आत्मा के व्यापकत्व की वैकल्पिक स्थिति है मूलतः वह शरीर-प्रमाण ही है। आचार्य हेमचन्द्र ने आत्मा के शरीर परिमाणत्व की सिद्धि तथा उसके व्यापकत्व का निराकरण करते हुए अन्ययोगव्यवच्छेदिका में कहा है