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________________ आत्मा की देह-परिमितता भारतीय दर्शन अध्यात्म-प्रधान दर्शन है। उसने एक अभौतिक, अलौकिक तत्त्व के विषय में चिन्तन किया। उसके चिन्तन के आलोक से आत्म तत्त्व प्रकाशित हुआ। आत्म तत्त्व की स्वीकृति के साथ ही एक प्रश्न उभरा कि इस आत्म तत्त्व का निवास स्थान कहां है ? इस संदर्भ में भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का प्रादुर्भाव हुआ। उपनिषद् साहित्य में आत्मा का परिणाम ___उपनिषद् साहित्य में आत्मा के परिणाम के बारे में विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत हुए हैं / वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है—यह मनोमय पुरुष (आत्मा) अन्तर् हृदय में चावल या जौ के दाने जितना है / छान्दोग्योपनिषद् ने आत्मा को प्रदेश मात्र कहा है। कोषीतकी में आत्मा को शरीर प्रमाण माना गया है। जैसे-तलवार अपनी म्यान में और अग्नि अपने कुंड में व्याप्त है, उसी तरह आत्मा शरीर में नख से लेकर शिखा तक व्याप्त है। ‘एष प्रज्ञात्मा इदं शरीरमनुप्रविष्टः।' मुए. कोपनिषद् में आत्मा को सर्वव्यापक माना है। तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय इन सब आत्माओं को शरीर परिमाण स्वीकार किया है। जब आत्मा को अवर्ण्य माना जाने लगा तब ऋषियों ने इसे अणु से अणु और महान् से महान् मानकर संतोष किया। 'अणोरणीयान् महतो महीयान् / ' अन्य भारतीय दर्शन में आत्मा का परिणाम __ सांख्य, न्याय-वैशेषिक आदि सभी वैदिक दर्शनों ने आत्मा को व्यापक माना है। शंकर को छोड़कर रामानुज आदि ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार इसके अपवाद हैं। उन्होंने ब्रह्मात्मा को व्यापक एवं जीवात्मा को अणु परिमाण स्वीकार किया है। बौद्ध के अनुसार आत्मा विज्ञानों का प्रवाह है अतः उसका कोई परिमाण नहीं हो सकता। वास्तव में आत्मा का कोई आश्रय है ही नहीं, जिससे आत्मा उसके अनुरूप कोई परिमाण धारण कर सके। जैन दर्शन ने आत्मा को अणु विभु परिमाण से रहित मध्यम परिमाणवाला स्वीकार किया है / जैन ने आत्मा को शरीर-व्यापी स्वीकार किया है। आत्मा के परिमाण के संदर्भ में अणु विभु एवं मध्यम इन प्रकारों का उल्लेख है जो उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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