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________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 89 होता, वह द्रव्य है / ट्रॅव्य में परिणमन होता है फिर भी उसकी स्वरूप हानि नहीं होती। यही सत्. पदार्थ की ध्रुवता है। जैन के अनुसार द्रव्य नित्य एवं अवस्थित है'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' जैन कूटस्थ नित्यता को स्वीकार नहीं करता। उसका द्रव्य परिणामी नित्य है / 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' द्रव्य के सामान्य तथा विशेष स्वरूप का च्यूत न होना ही उसका नित्यत्व है और अपने स्वरूप में स्थिर रहते हुए भी अन्य तत्त्व के स्वरूप को प्राप्त न करना द्रव्य का अवस्थित्व है। जैन को वेदान्त के ब्रह्म एवं सांख्य के पुरुषं जैसा कूटस्थ द्रव्य मान्य नहीं है / न ही बौद्ध की तरह द्रव्य रहित पर्यायात्मकता में उसका विश्वास है / उसका अपना स्वतन्त्र अभिमत है / द्रव्य, पर्याय दोनों की सापेक्ष स्वीकृति जैन दर्शन में है / 'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु' जैन को मान्य है। द्रव्यं पर्यायरहितं पर्यायाद्रव्यवर्जिताः क्व कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा। जैन धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आवाशास्तिकाय काल, पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय इन छः द्रव्यों को मानता है / जैन का द्रव्य वैशेषिक की तरह उत्पत्ति के प्रथम क्षण में निर्गुण एवं निष्क्रिय नहीं है / गुण द्रव्य का सहभू धर्म है / द्रव्य के साथ ही गुण उत्पन्न हो जाते हैं यद्यपि जैन एवं वैशेषिक दोनों का ही द्रव्य अनादि निधन एक प्रश्न उपस्थित होता है कि इन छः द्रव्यों के अतिरिक्त भी कोई द्रव्य है या नहीं। यदि है तो वह किंरूप है / परमाणु भी द्रव्य है / घट भी द्रव्य है तथा लोक भी द्रव्य है। इनके द्रव्यत्व में कोई अन्तर है या नहीं। जब हम अन्य दर्शनों की ओर दृष्टिपात करते हैं तो हमें द्रव्यत्व में भेद उपलब्ध होता है। जैसा कि हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि द्रव्य और सत् एक है / एक ही वस्तु के अभिधान है / वेदान्त दर्शन में पारमार्थिक, व्यावहारिक एवं प्रातिभासिक के भेद से सत् त्रिधा विभक्त है। ब्रह्म पारमार्थिक, जगत् व्यावहारिक एवं स्वप्न प्रातिभासिक सत् है। योगाचार बौद्ध का सत् भी त्रिधाविभक्त है / परिकल्पित, परतन्त्र और परिनिष्पन्न / परिकल्पित एवं परतन्त्र व्यावहारिक सत् है तथा परिनिष्पन्न पारमार्थिक सत् है / बौद्ध धर्म में संवृति सत् तथा परमार्थ सत् की भी अवधारणा है यत्र भिन्ने न तद्बुद्धिरन्यापोहे धिया च तत् / घटाम्बुवत् संवृति सत् परमार्थसदन्यथा / /
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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