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________________ 88 / आर्हती-दृष्टि सत् / ' 'सद् द्रव्यलक्षणम्' इस परिभाषा से पुनरुक्ति दोष का निर्गमन हो जाता है। उमास्वाति के द्रव्यलक्षण से यह फलित हो जाता है कि गुण और पर्याय से रहित द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है / मात्र प्रज्ञा से उसकी पृथक् कल्पना की जा सकती है। द्रव्य से रहित पर्याय एवं पर्याय रहित द्रव्य का सद्भाव नहीं है / 'पज्जयविजुदं दव्वं, दव्वविजुत्ता य पज्जवा णत्थि / ' द्रव्य से सन्दर्भित वाचक के तीनों सूत्रों का(१) 'उत्पादव्ययघोव्यात्मकं सत्', (2) “सद् द्रव्य लक्षणम्', (3) 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' समाहार कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकाय की द्रव्य लक्षण की कारिका में किया है द्रव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं / गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू॥ जो द्रव्य है, वही सत् है तथा जो सत् है, वही द्रव्य है / सत्ता और द्रव्य परस्पर अनन्य है / इसी आशय का निरूपण पञ्चास्तिकाय की इस गाथा में हुआ है 'दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो।' सप्तभंग के आधार पर भी आ० कुन्दकुन्द ने द्रव्य को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है सिय अत्यि, णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो च तत्तिदयं / दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण सम्भवदि / / जैन दर्शन में द्रव्य की विभिन्न परिभाषाओं में उसके आश्रय रूप की चर्चा बहुलता से है / द्रव्यानुयोग तर्कणा में द्रव्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है गुणपर्याययोः स्थानभमेकरूपं सदापि यत् / स्वजात्या द्रव्यमाख्यातं मध्ये भेदो न तस्य व॥ जैन सिद्धान्त दीपिका में भी द्रव्य की परिभाषा में कहा गया है—'गुणपर्यायाश्रयो द्रव्यम्' गुण एवं पर्याय का आश्रय द्रव्य है। द्रव्य शब्द की व्युत्पत्तिपरक परिभाषा से भी द्रव्य के स्थायित्व का बोध होता है—'अद्रुवत्, द्रवति, द्रोष्यति तांस्तान् पर्यायान् इति द्रव्यम्' जो भिन्न-भिन्न पर्यायों को प्राप्त हुआ है, हो रहा है तथा होगा, वह द्रव्य है। इसका फलित अर्थ यह है कि * विभिन्न अवस्थाओं का उत्पाद एवं विनाश होने पर भी जो ध्रुव है, जिसका नाश नहीं
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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