________________ 5 गुण पर्याय : भेद या अभेद जो गुण-पर्यायात्मक होता है वह द्रव्य है / द्रव्य, गुण और पर्याय को आश्रय प्रदान करता है / द्रव्य का सहभावी धर्म गुण कहलाता है और क्रमभावी धर्म पर्याय / सहभावी धर्मो गुणः क्रमभावी धर्मः पर्यायः / गुण का द्रव्य के साथ सहभाव होता है। वैशेषिक दर्शन का मानना है कि 'उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं निष्क्रियं च तिष्ठति।' द्रव्य उत्पत्ति के समय निर्गुण होता है / बाद में समवाय सम्बन्ध के द्वारा द्रव्य और गुण का सम्बन्ध हो जाता है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार गुण द्रव्य का सहभू धर्म है / उसका द्रव्य वैशेषिक की तरह उत्पत्ति के समय निर्गुण नहीं होता, सगुण होता है / यद्यपि नैयायिक-वैशेषिक और जैन दोनों का द्रव्य अनादिनिधन है तब गुण स्वतः ही अनादि-निधन हो जाता है / गुण द्रव्य की चिरस्थायी विशेषता है जबकि पर्याय अस्थायी विशेषता है। - उल्लेखनीय है कि प्राचीनतर आगमों में हमें गुण का विशेषता के अर्थ में उल्लेख नहीं मिलता किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र के एक पूर्ववर्ती अंश में तथा उमास्वाति और कुन्दकुन्द ग्रन्थों में गुण को द्रव्य तथा पर्याय से अतिरिक्त एक विशिष्ट पदार्थ माना है। उत्तराध्ययन ने द्रव्य की परिभाषा में गुण को ही स्थान दिया है / ‘गुणाणमासओ दव्व' पर्याय का उल्लेख ही नहीं किया है। उमास्वाति और कुन्दकुन्द ने गुण के अतिरिक्त पर्याय को भी द्रव्य के लक्षण में सम्मिलित किया है। जब गुण और पर्याय दो पृथक माने गये तब उनके सम्बन्ध की समस्या उत्पन्न होती है / वाचक उमास्वाति और आचार्य कुन्दकुन्द ने गुण और पर्याय में भेद स्वीकार किया है। पूज्यपाद ने भी गुण और पर्याय में भेद स्वीकार किया है। 'के गुणाः के पर्यायाः', 'अन्वयिनो गुणाः व्यतिरेकिनः पर्यायाः' गुण द्रव्य के अन्वयी होते हैं तथा पर्याय व्यतिरेकी / गुण के द्वारा ही द्रव्य की दूसरे द्रव्य से पृथकता होती है। आचार्य अकलंक गुण और पर्याय में भेदाभेद मानते हैं / हरिभद्र एवं यशोविजयजी गुण और पर्याय में अभेद स्वीकार करते हैं। अमृतचन्द्र, वादी- देवसूरी, विद्यानन्द आदि ने गुण एवं पर्याय में भेद स्वीकार किया है / द्रव्य पदार्थ मौलिक है। गुण पर्याय धर्म है। धर्मी धर्म से कथंचितृ भिन्न है / उदाहरणतः जैसे जीव द्रव्य है। ज्ञान उसका गुण है तथा घटज्ञान पटज्ञान उसकी पर्याय है। धर्म अधर्म द्रव्य है,