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________________ 102 / आर्हती-दृष्टि गति स्थिति में सहाय होना उनका गुण है। तथा गति स्थितिशील पदार्थों के साथ सम्बन्ध होना उनकी पर्याय है। पुद्गल द्रव्य है स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण ये इसके गुण है तथा घट, पट इत्यादि इसकी पर्याय है / ऐसा ही काल द्रव्य है / वर्तना उसका लक्षण है। सैकण्ड, मिनट, घण्टा उसकी पर्याय है / गुण पर्याय ये दो पृथक् शब्द ही उसके परस्पर भेद की सूचना दे रहे हैं। यदि उनमें अभेद होता तो पृथक् शब्दों के प्रयोग की भी कोई आवश्यकता नहीं थी / गुण दो प्रकार के बतलाये गये हैं / यथा—सामान्य और विशेष / सामान्य गुण 6 प्रकार का है विशेष 16 प्रकार का है / गुणों की संख्या सीमित है जबकि पर्याय अनन्त हैं गुण पर्याय की सांख्ययायिक स्वीकृति भी उनके परस्पर भेद की सूचना दे रही है। आचार्य सिद्धसेन का गुण और पर्याय के सम्बन्ध में अन्य आचार्यों से मतभेद है। तार्किक प्रतिभा के धनी सिद्धसेन उसी बात को स्वीकार करते हैं जो उनकी तर्क की कसौटी पर खरी उतरती हैं चाहे वह तथ्य आगम के अनुकूल हो या न हो वे तर्क सिद्ध तथ्य को ही स्वीकार करते थे। वे गुण और पर्याय में अभेद स्वीकार करते थे। उन्होंने कहा है कि गुण और पर्याय समानार्थक है अतः वे दोनों शब्द एक ही अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। भगवान् महावीर ने दो नयों का ही वर्णन किया है द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। उन्होंने गणार्थिक नय का कहीं उल्लेख ही नहीं किया है। यदि गण पर्याय से भिन्न होता तो वे गुणास्तिक नय का उल्लेख अवश्य करते। किन्तु उन्होंने तो वर्णपर्याय का प्रयोग किया है / वर्णगुण का कहीं भी प्रयोग नहीं किया है अतः गुण और पर्याय में अभेद है तथा यह तथ्य आगम सिद्ध है। ___डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने प्रवचनसार के सम्पादकीय में सिद्धसेन दिवाकर के गुण-पर्याय अभेदवाद की आलोचना की है। उन्होंने कहा कि सिद्धसेन न्याय वैशेषिक एवं कुन्दकुन्द के गुण की स्थिति को एक जैसा समझ रहे हैं / वे स्वयं Confused हैं / उपाध्येजी की यह आलोचना कहां तक उचित है यह चिन्तनीय बिन्दु है / गुण और पर्याय दो शब्द हैं अतः इनमें भेद होना चाहिए तथा गुण मात्र द्रव्याश्रित होते हैं जबकि पर्याय द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित है। पुद्गल द्रव्य है स्पर्श रस आदि उसके गुण हैं / स्पर्श के भेद स्पर्श की पर्याय है / एक ही वस्तु चक्षु का विषय बनती है तब रूप बन जाती है। रसना से रस, घ्राण से गन्ध एवं स्पर्शनेन्द्रिय की विषयता के कारण स्पर्श हो जाती है / वस्तु की ये पर्यायें व्यवहाराश्रित हैं / यदि स्पर्श में और उसके भेद रूप पर्यायों में अन्तर होता तो संभिन्नस्रोतोपलब्धि के समय एक ही इन्द्रिय से सारे विषयों का ज्ञान कैसे होता तथा एकेन्द्रियादि जीव अपना व्यवहार कैसे चलाते।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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