________________ 52 / आर्हती-दृष्टि - जैन दर्शन के अनुसार आत्मा परिणामी नित्य है / चैतन्य स्वरूप है / शुभाशुभ कर्म की कर्ता एवं भोक्ता है / स्वदेह परिणाम है न अणु न विभु किन्तु मध्यम परिमाण वाला है। उपयोग लक्षण वाला है जीवो उवयोगमओ अमुत्तिकत्ता सदेह परिमाणो भोत्ता संसारत्यो सिद्धो सो विस्ससोडगई। - आत्मा अस्तित्ववान् है अविनाशधर्मा है / वह कर्मों का कर्ता है तथा कृत को का भोग भी वहीं करता है ।अस्थि अविणासधम्मी करेइ वेएई सन्मतिप्रकरण, 3/55) हरिभद्राचार्य ने जीव के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा “तत्र ज्ञानादिधर्मेभ्यो भिन्नाभिन्नो विवृतिमान् / शुभाशुभकर्म कर्ता भोक्ता कर्म फलस्य च।" . चैतन्य लक्षणो जीव / जैन दर्शन के अनुसार जीव दो प्रकार के हैं—संसारी एवं सिद्ध / सिद्ध जीव शुद्ध बुद्ध मुक्त है उनको हम नहीं देख सकते / शुद्ध जीव को परिभाषित करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है जीवस्स णत्थि वण्णो णवि गंधो णवि रसो णवि य फासो जवि एवं ण सरीरं णवि संठाणं ण संहणणं समयसार गा 50 .यह स्थिति शुद्ध जीव की है, निश्चयनय की व्याख्या है। किन्तु हमारे अनुभव का विषय संसारी जीव बनता है। उसकी पहचान किससे होती है। यह विमर्शनीय बिन्दु है। अब हमारा जीव के अभिज्ञान से तात्पर्य संसारी जीव से है / भगवती सूत्र में जीव की पहचान के लक्षण को प्रस्तुत करते हुये कहा गया है कि जीव के जीवत्व की अभिव्यक्ति शक्ति एवं प्रयल के द्वारा उत्था (चेष्टा) पूर्वक गति से होती है / उत्थान, बल, पराक्रम इत्यादि वीर्य की अवस्था विशेष है। शक्ति के द्वारा जीव अपने जीवत्व को अभिव्यक्त करता है। प्रयल और उवयोग जीव और अजीव की विभाजक रेखा है। भगवती में ही कहा गया ‘उवओगलक्खणे णं जीवे जीव का लक्षण उपयोग है। चेतना के व्यापर को उपयोग कहा जाता है / चेतना का व्यापार बिना शक्ति के नहीं हो सकता। मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से मतिज्ञान की प्राप्ति होती है किन्तु उसकी प्रवृत्ति नामकर्म के उदय तथा वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से होगी / अतएव प्रयत्न