________________ जीव की पहचान / 53 एवं उपयोग जीव के अभिज्ञान के हेतु हैं। . द्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमिनचन्द्र ने कहा है कि व्यवहार नय की अपेक्षा जिसके तीनों कालों में इन्द्रिय बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण पाये जाते हैं, वह जीव हैं तथा निश्चय नय से चेतना ही जीव है। व्यवहार नय से आठ प्रकार का ज्ञानोपयोग एवं चार प्रकार का दर्शनोपयोग सामान्य जीव का लक्षण है किन्तु शुद्धनय की अपेक्षा शुद्धज्ञान तथा दर्शन ही जीव का लक्षण है। उपर्युक्त जीव का लक्षण व्यवहार तथा निश्चय नय के आधार पर किया गया है। - पञ्चास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णता। जं हवदि तेसु णाणं जीवो ति यतं परूवंति // . पञ्चास्तिकायगा, 121 स्पर्श आदि इन्द्रियों तथा पृथ्वीकाय आदि काय ये जीव नहीं है। उनमें जो ज्ञान मात्रा है, वही जीव है। ___ आचार्य नेमिचन्द्र ने इन्द्रिय इत्यादि जिनके होते हैं उनको जीव कहा और आचार्य कुन्दकुन्द ने उनमें जीवत्व का निषेध किया है। तत्काल देखने से दोनों के कथन में विरोध प्रतीत होता है / किन्तु नयदृष्टि से विचार करने से विरोध समाप्त हो जाता है। नेमिचन्द्र की व्याख्या व्यवहार नयानुगामिनी और आचार्य कुन्दकुन्द की व्याख्या निश्चय नया--गामिनी है। व्यवहारनय से कुन्दकुन्द को भी इन्द्रिय आदि जीव रूप में मान्य है तथा निश्चयनय के अनुसार इन्द्रियादि के जीवत्व का अस्वीकार नेमिचन्द्र जी को भी मान्य है। ___ जीव की पहचान एवं उसको अजीव से पृथक् करने के कुछ असाधारण लक्षण पश्चास्तिकाय में उपलब्ध है। जाणादि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुखं विभेदि दुक्खादो। कुवदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं॥ जीव समस्त पदार्थों को जानता देखता है। वह सुख की अभिलाषा करता है। दुःख से भयभीत होता है / हित अहित को करता है तथा उनके फल को स्वयं भोगता है। दशवैकालिक सूत्र में भी जीव की इच्छा शक्ति का निरूपण है। संसार के कोई 'भी प्राणी मरना नहीं चाहते जीना चाहते हैं / उनकी यह चाह (इच्छा) ही उनमें जीवत्व