________________ 40 / आहती-दृष्टि जैन जैन दर्शन आत्मवादी-कर्मवादी दर्शन है / कर्मवाद की अवधारण में पुनर्जन्म सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् महावीर ने कहा-राग और द्वेष कर्म के बीज हैं तथा कर्म जन्म-मरण का मूल कारण है। पुनर्जन्म कर्म-युक्त आत्मा के ही हो सकता है। अकर्मा आत्मा जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त होती है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को पुष्ट करते हुए कहा है कि बालं शरीरं देहतरपुव्वं इंदिया इमत्ताओ। जुवदेहो बालादिव स जस्स देहो स देही त्ति / / जिस प्रकार युवक का शरीर बालक शरीर की उत्तरवर्ती अवस्था है वैसे ही बालक का शरीर पूर्वजन्म के बाद में होने वाली अवस्था है / इसका जो अधिकारी है, वही आत्मा है / जाति-स्मृति ज्ञान पूर्वजन्म का पुष्ट प्रमाण है। भगवान् महावीर अपने शिष्यों को संयम में दृढ़ करने के लिए जाति-स्मृति करवा देते थे। मेघकुमार जब संयम से च्युत होने लगा तब भगवान् ने उसको पूर्वजन्म का स्मरण करवा दिया। जैन आगमों में आगत 'पोट्ट-परिहार' शब्द भी पुनर्जन्म सिद्धान्त का संवाहक है / गोशालक को उत्तरित करते हुए भगवान् ने कहा था कि ये तिल पुष्प के बीज मरकर पुनः इसी पौधे की फली में फलित होंगे। भगवती, आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में विपुल मात्रा में पूर्वजन्म के निदर्शन उपलब्ध हैं। , पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि में पुनर्जन्म पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी पुनर्जन्म के बारे में विचार किया है। प्राचीन युनान के महान् दार्शनिक पाइथोगोरस के अनुसार साधुत्व की अनुपालना से आत्मा का जन्म उच्चतर लोक में होता है और दुष्ट आत्माएं निम्न योनियों में जाती हैं। .. सुकरात का मन्तव्य था कि मृत्यु स्वप्नविहीन निद्रा और पुनर्जन्म जागृत लोक के दर्शन का द्वार है / प्लेटो ने भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। प्लेटो के शब्दों में-The soul always wears her garment a new. The soul has a natural strength which will hold out and be born many times. दार्शनिक शोपनहार के शब्दों में पुनर्जन्म एक असंदिग्ध तत्त्व है। विज्ञान जगत् में पुनर्जन्म की अवधारणा दार्शनकि जगत् में तो पुनर्जन्म चर्चा का विषय रहा ही है, आधुनिक विज्ञान के .