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________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 275 श्रुतावरणक्षयोपशम रूप भावश्रुत है / यह तथ्य सर्वज्ञ कथित है तथा लता आदि में आहार, भय, परिग्रह, मैथुन आदि संज्ञा होती है। उन संज्ञाओं के चिह्न उनमें स्पष्ट देखे जाते हैं / पुनः शंका उपस्थित करते हुए कहा गया भावश्रुत तो भाषा एवं श्रोतलब्धिवान् के हो सकता है अन्य के नहीं होता। एकेन्द्रिय के न भाषा है न श्रोतलब्धि है अतः उसके भावश्रुत कैसे हो सकता है। आचार्य महत्त्वपूर्ण समाधान देते हुए कहते हैं कि जैसे द्रव्येन्द्रिय के अभाव में भी एकेन्द्रिय के सूक्ष्म भावेन्द्रिय का ज्ञान होता है, वैसे ही पृथ्वी आदि के द्रव्यश्रुत का अभाव होने पर भी भावश्रुत हो सकता है।" वृत्तिकार स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि केवली को छोड़कर संसार के सभी प्राणियों के अतिस्तोक बहु, बहुतर आदि तारतम्य से द्रव्येन्द्रिय के न होने पर भी पांचों ही लब्धि इन्द्रियों के आवरण का क्षयोपशम होता है। अतः पृथ्वी आदि ऐकेन्द्रिय के भावेन्द्रिय के समान भावश्रुत होता है / इस प्रसंग में वृत्तिकार ने बहुत रोचक ढंग से पृथ्वी आदि में पांचों भावेन्द्रियों का सद्भाव उदाहरणपूर्वक प्रस्तुत किया है। श्रुतज्ञान के भेद . आवश्यक नियुक्ति में श्रुतज्ञान के भेदों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि लोक में जितने प्रत्येक अक्षर हैं, जितने उन अक्षरों के संयोग हैं उतनी ही श्रुतज्ञान की प्रकृतियां हैं। संयुक्त और असंयुक्त एकाक्षरों के अनन्त संयोग होते हैं तथा प्रत्येक संयोग के अनन्त पर्याय होते हैं। अभिधेय पदार्थ अनन्त है तो अभिधान स्वतः ही अनन्त हो जाते हैं। अनन्त का कथन सम्भव नहीं है फिर भी उसके अक्षर, संज्ञी आदि चौदह भेद किये जाते हैं / 01 नन्दी में अक्षरश्रुत को तीन प्रकार का बताया है१. संज्ञाक्षर, 2. व्यंजनाक्षर एवं 3. लब्ध्यक्षर / अक्षर का संस्थान या आकृति (अर्थात् जो विभिन्न लिपियों में लिखे जाते हैं) को संज्ञाक्षर कहा जाता है / उच्चारण किये जानेवाले अक्षर व्यंजनाक्षर हैं / अक्षरलब्धि से युक्त व्यक्ति के लब्ध्यक्षर उत्पन्न होते हैं, वे पांच इन्द्रिय एवं मन से उत्पन्न होते हैं / 102 भाष्य में लब्धि अक्षर को व्याख्यायित करते हुए कहा जो अक्षर (प्राप्ति की कारण भूत) लब्धि है वही लब्ध्यक्षर हैं / इन्द्रिय एवं मन के निमित्त से उत्पन्न श्रुतग्रन्थानुसारी विज्ञानरूप श्रुतोपयोग एवं तदावरण कर्म का क्षयोपशम ये दोनों लब्ध्यक्षर है / 03 संज्ञाक्षर एवं व्यंजनाक्षर द्रव्यश्रुत हैं एवं लब्धि-अक्षर भावश्रुत हैं / "प्रथम दो प्रकार के अक्षर तो पौद्गलिक हैं, वास्तविक श्रुत तो लब्ध्यक्षर है और यह लब्ध्यक्षर पांचों में से किसी भी इन्द्रिय एवं मन से उत्पन्न हो सकता है। जब यह शब्द रूप है तो श्रोत्र
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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