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________________ 274 / आहती-दृष्टि श्रुतज्ञान कहा जाता था। तत्त्वार्थभाष्य में प्रदत्त उसके पर्यायवाची शब्दों से इसका स्पष्ट अवबोध हो जाता है। श्रुतमाप्तवचनमागम उपदेश ऐतिहमाम्नाय: प्रवचन जिनवचनमित्यनान्तरम् / आगमों के ज्ञान को भी श्रुतज्ञान कहा जाता है / आचार्य उमास्वाति ने श्रुतज्ञान को मतिपूर्वक माना है तथा उसके अंगबाह्य एवं अंगप्रविष्ट ये दो भेद माने हैं / अंग बाह्य के अनेक प्रकार हैं तथा अंग प्रविष्ट के 12 भेद हैं।" इन दो भेदों में सम्पूर्ण जैन वाङ्गमय समाविष्ट हो जाता है / जैन धर्म का यह विश्वास है कि आगम सम्पूर्ण सत्य के संग्राहक हैं / विशेषावश्यक भाष्य में श्रुत की व्युत्पत्ति करते. हुए कहा गया जो आत्मा के द्वारा सुना जाता है अथवा श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से सुना जाता है इत्यादि श्रुत के व्युत्पत्तिपरक अर्थ उपलब्ध होते हैं।" इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला श्रुतानुसारी ज्ञान जो स्वयं में प्रतिभासित घट-पट आदि पदार्थों को दूसरों को समझाने में समर्थ होता है, यह श्रुतज्ञान है। ज्ञानबिन्दु में भी श्रुतानुसारी को श्रुत कहा है तथा धारणात्मक ज्ञान के द्वारा वाच्य-वाचक सम्बन्ध संयोजना से जो ज्ञान होता है वह श्रुतानुसारी है। वही श्रुतज्ञान है। जब श्रुतानुसारी को श्रुतज्ञान कहा गया तब शंका उपस्थित करते हुए पूछा गया कि यदि शब्दोल्लेखी श्रुतज्ञान है तब तो मतिज्ञान का भेद अवग्रह ही मतिज्ञान होगा। शेष ईहा आदि.श्रुतज्ञान हो जायेंगे क्योंकि वे भी शब्दोल्लेख से युक्त हैं अतः मतिज्ञान का लक्षण अव्याप्त एवं श्रुतज्ञान का लक्षण अतिव्याप्त दोष से दूषित होगा। समाधान की भाषा में आचार्य ने कहा कि ईहा आदि साभिलाप है किन्तु सशब्द होने मात्र से वे श्रुतज्ञान नहीं हैं क्योंकि जो श्रुतानुसारी साभिलाप है वही श्रुतज्ञान है। अतः मतिज्ञान के ईहा आदि भेद साभिलाप होने पर भी श्रुतानुसारी नहीं हैं अतः वे श्रुतज्ञान के अन्तर्गत नहीं आ सकते। अतः दोनों ज्ञानों के लक्षण दोषमुक्त हैं / साभिलाप अवग्रह आदि श्रुतनिश्रित मतिज्ञान हैं, वे श्रुतानुसारी नहीं हैं / मतिज्ञान साभिलाप एवं अनभिलाप उभयप्रकार का है। किन्तु श्रुतज्ञान तो साभिलाप ही होता है / द्रव्यश्रुत के अनुसार जो दूसरे को समझाने में समर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान है।" श्रुतज्ञान को परप्रत्यायनक्षम माना गया है। __श्रुतज्ञान को श्रुतानुसारी स्वीकार किया गया तब शंकाकार ने शंका उपस्थित की है कि यह लक्षण अव्याप्त दोष से दूषित है। क्योंकि श्रुतानुसारी श्रुतज्ञान एकेन्द्रिय के नहीं हो सकता।" क्योंकि उनके मन आदि सामग्री नहीं है जबकि आगम में एकेन्द्रिय के दो ज्ञान माने हैं। समाधान देते हुए कहा गया उनके द्रव्यश्रुत नहीं है किन्तु भावश्रुत हैं। कारण वैकल्य के कारण उनके द्रव्यश्रुत नहीं है किन्तु
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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