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________________ 164 / आर्हती-दृष्टि एकाधिकार होना चाहिए और समस्त आर्थिक सेवाएं सार्वजनिक अधिकार में हों। कोई भी व्यवस्था सर्वथा पूर्ण नहीं होती, न ही सर्वथा भ्रान्त / यही सिद्धान्त इन आर्थिक व्यवस्थाओं पर घटित होता है / साम्यवादी व्यवस्था में मात्र समाज पर ध्यान केन्द्रित किया गया। व्यक्ति को मात्र यन्त्र समझा गया। उसकी वैयक्तिक स्वतन्त्रता का हनन हुआ, इस व्यवस्था में वैयक्तिता का शोषण हुआ। साम्यवाद में व्यवस्था को तो बदला गया किन्तु व्यक्ति को सर्वथा उपेक्षित कर दिया गया। सम्पत्ति के सार्वजनिकीकरण की व्यवस्था भी कारगर न हो सकी। साम्यवादी शासकों के जीवन में भी घोर विलासिता देखी गई। रोमानिया के राष्ट्रपति का जीवन इसका स्वतः प्रमाण है / उसके पहनने की चप्पलों तक में हीरे जड़े हुए थे / अतः व्यक्ति की उपेक्षा करके मात्र व्यवस्था बदलने से समाज की स्वस्थ संरचना नहीं हो सकती। साम्यवादी व्यवस्था में कार्य की अभिप्रेरणा ही प्राप्त नहीं होती अतः व्यक्ति विकास नहीं कर सकता। पूंजीवादी व्यवस्था में भौतिक साधनों की वृद्धि को ही विकास का मानदण्ड माना गया। Have and Have not के आधार पर व्यक्ति विशेष का विभाजन हुआ। पूंजीवादी व्यवस्था में भौतिक विकास जितना हुआ उससे भी कहीं अधिक मानसिक अनुताप बढ़ा। पूंजीवाद की विकास की अवधारणा की समीचीन नहीं है / पूंजीवादी देशों में भौतिक सुख-सुविधा के साधनों की भरमार होने पर भी वहां के 80% व्यक्ति मानसिक अशान्ति का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पागलपन, नशीली वस्तुओं का सेवन बढ़ता जा रहा है.। ऐसी स्थिति व्यक्ति को स्व-निरीक्षण की प्रेरणा दे रही है। सत्य तो यह कि शान्ति सुख आन्तरिक होता है / बाह्य साधनों में उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। किन्तु हो रहा है इसके विपरीत / अनेकान्त दर्शन के अनुसार व्यक्ति और समाज को सापेक्ष मूल्य प्रदान किया जाए। उनकी प्रवृत्ति को समझा जाए / व्यवस्था भी बदले साथ में व्यक्ति का हृदय परिवर्तन भी हो / कोरा व्यक्ति बदले तब भी स्वस्थ समाज संरचना नहीं हो सकती। केवल सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन भी स्थायी स्वस्थ व्यवस्था नहीं दे सकते / कुछ लोगों की यह अवधारणा है कि व्यवस्था बदलने से ही सारा परिवर्तन घटित हो जाएगा, यह एकांगी अवधारणा है / व्यक्ति एवं समाज दोनों का सुधार साथ-साथ चलना चाहिए तभी स्वस्थ समाज-व्यवस्था हो सकती है। 'मनुष्य सामाजिक प्राणी है'-इस वास्तविकता के सन्दर्भ में अर्थशास्त्र का आवश्यकता बढ़ाओ का सिद्धान्त गलत नहीं है किन्तु मनुष्य केवल क्या सामाजिक ही है? क्या वह व्यक्ति नहीं है? क्या उसमें सुख-दुःख का संवेदन नहीं? आवश्यकताओं का असीमित दबाव क्या उसमें शारीरिक, मानसिक तनाव पैदा नहीं
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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