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________________ 98 / आहती-दृष्टि साम्य है / प्रो. एडिंग्टन ने लिखा है कि सापेक्षवाद के सिद्धान्त के पूर्व वैज्ञानिक आकाश को सीमित मानते थे, अनन्त आकाश की किसी ने कल्पना ही नहीं की थी। किन्तु सापेक्षवाद कहता है कि यदि आकाश सीमित है तो उसकी सीमा के बाहर क्या है ? इसलिए आकाश अनन्त है या ससीम है ? इस प्रश्न का उत्तर वह इस रूप में प्रस्तुत करता है कि आकाश ससीम है किन्तु उसका अन्त नहीं है / अंग्रेजी में इसी मंतव्य को ‘फाइनाइट बटअनबाउण्डेड' शब्दों द्वारा व्यक्त किया जाता है। ... __आइन्सटीन के अनुसार आकाश की ससीमता उसमें रहने वाली प्रकृति के निमित्त से है। प्रकृति (पुद्गल) के अभाव में आकाश अनन्त है / इनके विचार जैन दर्शन के निकट हैं। ___आकाश की स्वरूप-मीमांसा जैन दर्शन में विस्तार से हुई है / 'अवगाहलक्खणेणं आगासत्थिकाए' जो समस्त पदार्थों को आश्रय प्रदान करे, वह आकाश है। आकाश का गुण अवगाहन है। वह स्वयं अनालम्ब अथवा स्वप्रतिष्ठित है। शेष द्रव्यों का. आलम्बन है। स्वरूप की दृष्टि से सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं किन्तु क्षेत्र या आयतन की दृष्टि से वे आकाश प्रतिष्ठित हैं, इसलिए उसे सब द्रव्यों का भाजन कहा गया है 'भायणं सव्वदव्वाणं नहं मोगाहलक्खणं' द्रव्यानुयोगतर्कणा में कहा गया है * यो दत्ते सर्वद्रव्याणां साधारणमवगाहनम् / लोकालोकप्रकारेण द्रव्याकाशः स उच्यते // पंचास्तिकाय में भी यही भाव प्रकट हो रहे हैं सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च / जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आयासं। - गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-भंते ! आकाशतत्त्व से जीवों और अजीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने कहा—गौतम ! आकाश नहीं होता तो ये जीव कहां होते? धर्म-अधर्म कहाँ व्याप्त होते? काल कहां वर्तन करता? पुद्गल का रंगमंच कहां बनता? यह विश्व निराधार ही होता? भगवती सूत्र में भी कहा गया है-'आगासत्थिकाएणं जीवदव्वाण च अजीवदव्वाण च भायणभूए।' द्रव्य आदि की दृष्टि से आकाश के स्वरूप पर विचार करें तो द्रव्य की दृष्टि से आकाश एक और अखण्ड द्रव्य है अर्थात् उसकी रचना में सातत्य है / क्षेत्र की दृष्टि से आकाश लोकालोक पारमाण है / यह सर्वव्यापी, अनन्त एवं असीम है। इसके प्रदेशों की संख्या अनन्त
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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