________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 97 आ रही हैं / सम्भव है कि भविष्य में वे इसकी अपौद्गलिकता को स्वीकार कर लें और इस तरह गति माध्यम ईथर की तरह स्थिति का माध्यम भी स्वीकार कर लिया जाये। धर्म-अधर्म की तुलना धन ईथर एवं ऋण ईथर के रूप में की जाती है। विश्व-प्रहेलिका के लेखक ने इन शब्दों का प्रयोग किया है। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं जैन दर्शन मान्य धर्म-अधर्म द्रव्य विश्व-व्यवस्था के मूल घटक हैं। उनका अस्तित्व जैन दर्शन में तो हजारों वर्षों से मान्य रहा है तथा उनका विस्तत वर्णनं प्राप्त है। तथा आज वैज्ञानिक जगत् में भी इन तथ्यों की स्वीकृति सत्य-संधान के मार्ग को प्रशस्त कर रही है। वैज्ञानिक तथ्यों के साथ धर्म-अधर्म की एकदेशीय तुलना तो निश्चित रूप से हो सकती है। आकाशास्तिकाय विश्व-संरचना के घटक द्रव्यों के सन्दर्भ में आकाश का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आकाश तत्त्व प्रायः सभी भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। यद्यपि उसके स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें परस्पर मतभेद है। पर अस्तित्व के सम्बन्ध में सभी एकमत हैं / आकाश तत्त्व की वास्तविकता एवं अवास्तविकता को लेकर पाश्चात्य दर्शन जगत् में दो विचार हैं। डेकार्टस, लाइबनीत्स, काण्ट आदि आकाश को स्वतन्त्र एवं वस्तु सापेक्ष वास्तविकता के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। किन्तु प्लेटो, अरस्तु गेसेण्डी आदि आकाश को स्वतन्त्र एवं वस्तु सापेक्ष वास्तविकता के रूप में स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन भी आकाश को अस्तिकाय मानता है अर्थात् आकाश का स्वतन्त्र अस्तित्व उसे मान्य है। वैशेषिक आदि कुछ दार्शनिक दिक् और आकाश को पृथक् द्रव्य मानते हैं पर जैन मान्यतानुसार दोनों पृथक् द्रव्य नहीं हैं / दिशा आकाश का ही विशेष भेद है। 'दिगपि आकाशविशेषः न तु द्रव्यान्तरम्' / कणाद् ने दिग् को स्वतन्त्र द्रव्य माना है। वैशेषिक मतानुसार जिसका गुण शब्द हो, वह आकाश तथा जो बाह्य जगत् को देशस्थ करता है, वह दिक् है / कणाद् के मत से आकाश और दिक् का भेद कार्य सापेक्ष है। यदि वह शब्दनिष्पत्ति का कारण बनता है तो आकाश और यदि बाह्य वस्तु को देशस्थ करता है तो दिक् है / जैन के अनुसार न तो दिशा स्वतन्त्र द्रव्य है और न ही शब्द आकाश का गुण / शब्द तो पौद्गलिक है। वह पुद्गल स्कंध के भेद व संघात से निष्पन्न होता है। जैन दर्शन सम्मत आकाश एवं वैज्ञानिक मान्य स्पेस के सिद्धान्त में बहुत कुछ