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________________ जैनयोग में अनुप्रेक्षा यह संसार शब्द एवं अर्थमय है। शब्द, अर्थ के बोधक होते हैं। अर्थ व्यंग्य एवं शब्द व्यञ्जक होता है। साधना के क्षेत्र में शब्द एवं अर्थ दोनों का ही उपयोग होता है। साधक शब्द के माध्यम से अर्थ तक पहुँचता है तथा अन्ततः अर्थ के साथ उसका तादात्म्य स्थापित होता है / अर्थ से तादात्म्य स्थापित होने से ध्येय, ध्यान एवं ध्याता का वैविध्य समाप्त होकर उनमें एकत्व हो जाता है / उस एकत्व की अनुभूति में योग परिपूर्णता को प्राप्त होता है / इस एकत्व की अवस्था में चित्तवृत्तियों का सर्वथा निरोध हो जाता है। पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार यह निरोध ही योग है / पूर्ण समाधि की अवस्था है। __ जैन दर्शन में योग शब्द का अर्थ है-प्रवृत्ति / मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति को योग कहा गया है / जैन-तत्त्व-मीमांसा में शुभयोग, अशुभयोग आदि शब्द प्रचलित है, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में जैनयोग शब्द का प्रयोग इस प्रवृत्त्यात्मक योग के लिए नहीं हुआ है। यहाँ योग शब्द जैन साधना पद्धति के अर्थ में प्रयुक्त है। आगम उत्तरवर्ती जैन साहित्य में योग का तत्त्वमीमांसीय अर्थ प्रवृत्त्यात्मकता तो स्वीकृत ही रहा किन्तु साथ में साधना के अर्थ में भी इसका प्रयोग होने लगा। जैन आचार्यों ने साधनापरक ग्रन्थों के नाम योगशास्त्र आदि रखे एवं योग का साधनात्मक नाम सर्वमान्य हो गया। आत्मा का सिद्धान्त स्थिर हुआ तब आत्म-विकास के साधनों का अन्वेषण किया गया। आत्म-विकास के उन साधनों को एक शब्द में मोक्षमार्ग या योग कहा गया है। वस्तुतः जैन साधना पद्धति का नाम मोक्षमार्ग है / आ हरिभद्र ने कहा—'मोक्खेण जोयणांओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो'। वह सारा धार्मिक व्यापार योग है जो व्यक्ति को मुक्ति से जोड़ता है। योग या मोक्षमार्ग केवल पारलौकिक ही नहीं है किन्तु वर्तमान जीवन में भी जितनी शान्ति, जितना चैतन्य स्फुरित होता है वह सब मोक्ष है। * शान्ति एवं चैतन्य की स्फुरणां के लिए जैन साहित्य में अनेक उपायों का निर्देश है। उन उपायों में एक महत्त्वपूर्ण उपाय है-अनुप्रेक्षा / जैन आगम, तत्त्व-मीमांसीय एवं साधनापरक साहित्य में अनुप्रेक्षा/भावना के सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण एवं विशद विवरण प्राप्त है। मोक्षमार्ग में वैराग्य की अभिवृद्धि के लिए बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन प्रसिद्ध है। इन्हें बारह वैराग्य भावना भी कहते हैं। इनके अनुचिन्तन से व्यक्ति
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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