________________ 70 / आर्हती-दृष्टि भोगों से निर्विण्ण होकर साम्यभाव में स्थित हो सकता है। ध्यान की परिसम्पन्नता के पश्चात् मन की मूर्छा को प्रोड़नेवाले विषयों का अनुचिन्तन करना अनुप्रेक्षा है / अनु एवं प्र उपसर्ग सहित ईक्ष् धातु के योग से अनुप्रेक्षा शब्द निष्पन्न हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-पुनः पुनः चिन्तन करना/विचार करना। प्राकृत में अनुप्रेक्षा के लिए अणुप्पेहा, अणुपेहा, अणुवेक्खा, अणुवेहा, अणुप्पेरखा, अणुपेक्खा आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन सबका संस्कृत रूपान्तरण अनुप्रेक्षा है / आचार्य पूज्यपाद ने शरीर आदि के स्वभाव के अनुचिन्तनं को अनुप्रेक्षा कहा है। स्वामी कुमार के अभिमतानुसार सुतत्त्व का अनुचिन्तन अनुप्रेक्षा है / अनित्य, अशरण आदि स्वरूप का बार-बार चिन्तन, स्मरण करना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा-तत्त्व चिन्तनात्मक है। ध्यान में जो अनुभव किया है उसके परिणामों पर विचार करना अनुप्रेक्षा है। ____ अध्यात्म के क्षेत्र में अनुप्रेक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है / अनुप्रेक्षा के विविध प्रयोगों से व्यक्ति की बहिर्मुखी चेतना अन्तर्मुखी. बन जाती है। चेतना की अन्तर्मुखता ही अध्यात्म है। जीवन का अभीष्ट लक्ष्य है। अनुप्रेक्षा के महत्त्व को प्रकट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जितने भी भूतकाल में श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं एवं भविष्य में होंगे वह भावना का ही महत्त्व हैं / आचार्य पद्मनन्दि बारह अनुप्रेक्षा के अनुचिन्तन की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि बारह भावना महान् पुरुषों के द्वारा सदा ही अनुप्रेक्षणीय है। उनकी अनुचिन्तना कर्मक्षय का कारण हैं / शुभचन्द्राचार्य कहते हैं कि भावना के अभ्यास से कषायाग्नि शान्त, राग नष्ट एवं अन्धकार विलीन हो जाता है तथा पुरुष के हृदय में ज्ञानरूपी दीपक उद्भासित हो जाता है।" तत्त्वार्थसत्र, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों में अनुप्रेक्षा को संवर धर्म का विशेष हेतु माना है।" ___ आगम में एक साथ बारह अनुप्रेक्षा का उल्लेख नहीं है किन्तु उत्तरवर्ती साहित्य में उनका एक साथ वर्णन है। वारस-अणुवेक्खा, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, शान्त-सुधारसभावना आदि ग्रन्थों का निर्माण तो मुख्य रूप से इन अनुप्रेक्षाओं के लिए ही हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र आदि में भी इनका पर्याप्त विवेचन उपलब्ध है / शान्त-सुधारस आदि कुछ ग्रन्थों में इन बारह भावनाओं के साथ मैत्री आदि चार भावनाओं को जोड़कर सोलह भावनाओं का विवेचन किया गया है। जैन साहित्य में बारह भावनाओं का उल्लेख बहुलता से प्राप्त है / अनित्य आदि अनुप्रेक्षा के प्रथक-पृथक प्रयोजन का भी वहाँ पर उल्लेख है / आसक्ति विलय के लिए अनित्य अनुप्रेक्षा, धर्मनिष्ठा के विकास के लिए अशरण अनुप्रेक्षा, संसार से उद्वेग प्राप्ति हेतु संसार-भावना एवं स्वजन-मोह त्याग के