________________ 208 / आर्हती-दृष्टि आवेग आया है तो तत्काल उसे एक बार दबाना होगा, बाद में उसका परिशोधन आवश्यक है / कर्मशास्त्र भी मानता है कि उपशमन की पद्धति लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकती। उपशम-प्रक्रिया से चलनेवाला साधक ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचकर भी वहां से गिर पड़ता है / अन्ततः तो उपशमित वृत्तियां अत्यन्त वेग से पुनः उभर आती हैं, अतः उपशमन के साथ ही परिशोधन आवश्यक है। 2. क्षयोपशम इस प्रक्रिया में दोषों का उपशमन एवं क्षय साथ-साथ चलता है / यह मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया है / मनोविज्ञान की भाषा में इसे उदात्तीकरण कहा जा सकता है। 3. क्षयीकरण इसमें दोषों का सर्वथा विलयन हो जाता है। सर्वथा क्षय हो जाने के बाद दोषों का पुनः आविर्भाव नहीं हो सकता। क्षयोपशम केवल चार घातिकर्म का ही होता है। अघातिकर्म का नहीं होता। वेदनीय, आयुष्य, नाम एवं गोत्र-कर्म आत्मा के गुणों का घात करने वाले नहीं हैं। आत्मा के चार मौलिक गुण हैं-ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति / घातिकर्म इन गुणों का घात करते हैं किन्तु वे सर्वथा घात नहीं करते इसलिए उनका क्षयोपशम होता रहता है। अघातिकर्म का उदय तथा क्षय ही हो सकता है। उपशम एवं क्षयोपशम नहीं होता क्योंकि अघातिकर्म संयोग करनेवाले हैं। शुभ कर्म का उदय होता है तो शुभ पुद्गलों का और यदि अशुभ कर्म का उदय होता है तो अशुभ पुद्गलों का संयोग मिलता है। ये कर्म आत्मगुणों के आवारक, विकारक एवं अवरोधक नहीं हैं बल्कि ये प्रापक हैं, कुछ प्राप्त करवानेवाले हैं, अतः इनका उदय या क्षय ही हो सकता है। क्षयोपशम एवं उपशम नहीं हो सकता। ___पूर्ण उपशम केवल मोहनीय कर्म का ही होता है / इसका हेतु यह है कि मोहनीय कर्म की प्रकृतियां संवेगात्मक और विकारक हैं, इसलिए उनका उपशम किया जा सकता है / ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियां आवारक और अन्तराय कर्म की प्रकृतियां अवरोधक होती हैं, अतः उनका उपशम नहीं होता / अघातिकर्म का भी उपशम नहीं हो सकता,उनका तो निरन्तर भोग ही किया जाता है / जब गुणस्थानातीत अवस्था प्राप्त होती है तब अघाति कर्म का क्षय होता है। शरीरी अवस्था में तो उनका भोग ही हो सकता है जबकि घातिकर्मों का सशरीर अवस्था में ही पूर्णतया नाश हो जाता है। जैन दर्शन में पांचों भावों का विशद विवेचन प्राप्त है। उनके आधार पर व्यक्तित्व के बाह्य एवं आभ्यन्तर स्वरूप का विश्लेषण किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक क्षेत्र