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________________ कर्म सिद्धान्त और क्षायोपशमिक भाव / 207 बन जाते हैं—(१) देशघाती कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम और (2) सर्वघाती कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम / देशघाती कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम काल में सम्बद्ध प्रकृति का मन्द विपाकोदय रहता है / मन्द विपाक अपने आवार्य गुण के विकास को रोक नहीं सकता। इस अवस्था में सर्वघाती रस वाला कोई भी दलिक उदय में नहीं रहता। सर्वघाती कर्म-प्रकृतियों के क्षयोपशम काल में विपाकोदय सर्वथा नहीं रहता केवल प्रदेशोदय . रहता है / केवल-ज्ञानावरण एवं केवल-दर्शनावरण इन दो सर्वघाती कर्म-प्रकृतियों का क्षयोपशम नहीं होता। ___शुभ अध्यवसाय, शुभ लेश्या और शुभ योग के द्वारा कर्म-प्रकृतियों के तीव्र विपाकोदय को मन्द विपाकोदय और विपाकोदय को प्रदेशोदय में बदलने की क्रिया चालू रहती है। औदयिक एवं क्षायोपशमिक भाव का संघर्ष निरन्तर चलता है।" साधना की सघनता से क्षायोपशमिक भाव प्रबल हो जाता है। साधना के विविध प्रयोगों के द्वारा क्षायोपशम भाव को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। तपस्या, ध्यान आदि साधना के द्वारा आत्मप्रदेशों को विशुद्ध बना दिया जाता है / उस विशुद्धि के सम्पर्क में आते ही अशुद्धि का क्षय होता चला जाता है। जैसे लेसर किरण निर्मित यन्त्र सैकड़ों हीरों को एकसाथ काट देता है, वैसे ही विशुद्धिमय आत्मप्रदेशों के द्वारा अनन्तानन्त कर्मों का निर्जरण सतत होता रहता है। क्षयोपशम की प्रक्रिया के सैद्धान्तिक स्वरूप का अवबोध प्राप्त कर जीवन के व्यवहार में उसका अवतरण आवश्यक है। ध्यान/तपस्यात्मक पुरुषार्थ के द्वारा उदीरणा, अपवर्तन, उद्वर्तन, संक्रमण आदि अवस्थाओं को निष्पादित करके सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। आवेगों के शोधन, परिवर्तन आदि की प्रक्रिया पर मानस-शास्त्र में विचार हुआ है। जैन कर्मशास्त्र में भी आवेश-परिशोधन की विस्तृत प्रक्रिया उपलब्ध है। कर्मशास्त्र की भाषा में आवेग-नियन्त्रण की तीन पद्धतियां हैं-उपशमन, क्षयोपशमन एवं क्षयीकरण। - 1. उपशमन–मन में जो आवेग उत्पन्न हुए हैं उनको दबा देना उपशम है / इसमें आवेगों का विलय नहीं होता किन्तु वे एक बार तिरोहित जैसे प्रतीत होते हैं किन्तु पुनः उभर जाते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इसे दमन की पद्धति कहा गया है / मनोविज्ञान दमन की पद्धति को स्वस्थ नहीं मानता। कर्मशास्त्र में यह मान्य है। आयुर्वेद में दो प्रकार के वेग बतलाए गए हैं—शारीरिक एवं मानसिक / वहाँ कहा गया है कि शारीरिक वेग नहीं रोकना चाहिए, मानसिक वेग को रोकना आवश्यक है। क्रोध का
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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