________________ अनेकान्तका तात्विक एवं तार्किक आधार / 139 बौद्ध दर्शन में भी संवृत्ति सत् एवं परमार्थ सत् के भेद से सत् को द्विधा विभक्त स्वीकार किया है / भगवान् बुद्ध ने इन दो सत्यों का आश्रय लेकर ही धर्म की देशना प्रदान की थी। परिकल्पित, परतन्त्र एवं परिनिष्पत्र के रूप में सत् तीन प्रकार का बौद्ध दर्शन में प्रज्ञप्त है / इन तीनों में परिनिष्पन्न ही मास्मार्थिक/वास्तविक सत् है / अवशिष्ट दो सत् तो मात्र व्यवहार के संचालन के लिए स्वीकृत है। माध्यमिक संवृत्ति सत् एवं परमार्थ सत् को स्वीकार करते हैं। योगाचार/विज्ञानवादी सत् को परिकल्पित, परतन्त्र एवं परिनिष्पन्न कहते हैं। बौद्ध दर्शन की दो विचारधाराएं-विज्ञानवाद एवं शून्याद्वैतवाद प्रत्ययवादी हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ये दार्शनिक स्थूल जगत् की सत्ता को संवृत्ति/परिकल्पित या परतन्त्र कहकर वास्तविक की कोटि में उसे परिगणित नहीं करते हैं / अपितु इस जगत् से भिन्न शून्य अथवा विज्ञान ही इनके विचार में पारमार्थिक सत् है। यही प्रत्ययवाद की अवधारणा का मूल आधार है / सम्पूर्ण प्रत्ययवादी विचारधारा में भले ही वह वेदान्त आधारित है अथवा बौद्ध दर्शन सम्मत उसमें तत्त्व का अद्वैत है, तत्त्व का अद्वैत ही प्रत्ययवाद का आधार है। वस्तुवादी विचारक (1) चार्वाक्-चार्वाक् दर्शन पांच या चार भूतों की ही वास्तविक सत्ता स्वीकार करता है / चेतना चार भूतों के विशिष्ट प्रकार के सम्मिश्रण से उत्पन्न होती है / इन्द्रिय ज्ञान ही वास्तविक है / इन्द्रिय प्रत्यक्ष से प्राप्त प्रमेय को ही यह वास्तविक मानता है। भारतीय दर्शन में यही एक ऐसा दर्शन है जो सूक्ष्म, इन्द्रिय ज्ञान से परे के तत्त्वों को स्वीकार नहीं करता। (2) वैभाषिक (बौद्ध)-इनके अनुसार बाह्य पदार्थ की वास्तविक सत्ता है। ये बाह्य तथा आभ्यन्तर समस्त धर्मों के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। वैभाषिक के अनुसार बाह्य जगत् हमारे प्रत्यक्ष का विषय बन सकता है। (3) सौत्रान्तिक बौद्धों की यह विचारधारा भी बाह्य अर्थ की वास्तविक सत्ता स्वीकार करती है। इनके अनुसार पदार्थ का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं होता। वह अनुमान गम्य है। सांख्ययोग यह दर्शन भी वस्तुवादी है। इसके अनुसार प्रकृति और पुरुष ये दो मूल तत्त्व हैं। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। प्रकृति सम्पूर्ण बाह्य जगत् का मूल कारण है। प्रकृति से