________________ नवतत्त्व : उपयोगितावाद | 219 तत्त्वों के विभाजन की एक पृथक् शैली भी रही है उनको चार भागों में भी विभक्त किया गया है / उद्भट विद्वान् उद्योतकर ने हेय, हेयनिर्वतक, हान एवं हानोपाय ये चार अर्थपद माने हैं / चिकित्सा शास्त्र में भी चार विभाग उपलब्ध होते हैं / रोग, रोगहेतु, आरोग्य और भैषज्य / वैसे ही अध्यात्म शास्त्र के तत्त्वों का विभाग भी चार भागों में किया जा सकता है / संसार, संसारहेतु मोक्ष और मोक्षोपाय। व्याधिज्ञेयो व्याधिहेतुः प्रहेयः, स्वास्थ्यं प्राप्य भैषज्यं सेव्यमेवं / दुःखं हेतुस्तन्निरोधोऽथ मार्गो, ज्ञेयं हेयं स्पर्शितव्यं निषेव्यः / / भगवान् बुद्ध ने भी चार आर्य सत्यों को तत्त्व माना है। दुःख, दुःखहेतु, निरोध एवं निरोध का मार्ग / ठीक उसी प्रकार जैन के सात तत्त्वों का विभाजन इसी रूप में किया जा सकता है / जीव और अजोव ये दो तत्त्व संसार हैं, आश्रव और बन्ध संसार के हेतु हैं, मोक्ष लक्ष्य है तथा संवर निर्जरा उसकी प्राप्ति के साधन हैं / परन्तु संक्षेप में इनका अन्तर्भाव जीव राशि, अजीव राशि में ही हो जाता है। ____ अन्य दार्शनिकों की तत्त्व कल्पना का अन्तर्भाव इन दो तत्त्वों में ही हो जाता है / वैशेषिक परिकल्पित द्रव्य, पृथ्वी, जल, वायु आदि गुण-स्पर्श आदि कर्म उत्क्षेपण आदि एवं सामान्य विशेष समवाय इन छहों का अन्तर्भाव इन दो तत्त्वों में हो जाता है। सांख्य के 25 तत्त्व, बौद्धों के चार आर्य सत्य, चार्वाक् के चार भूत इन सबका समावेश इन द्विविध राशियों में हो जाता है / इन दो राशियों में सारा जगत् व्याप्त है। जो इन दो राशियों में समाविष्ट नहीं होता शशशृंग की तरह उसका अस्तित्व भी नहीं हो सकता। केवल चेतन या केवल जड़ का भी अस्तित्व विश्व में नहीं हो सकता। उभयरूपता का स्पष्ट प्रतिभास हो रहा है / 'नाद्वयं वस्तु नापि तद्व्यतिरिक्तमस्ति / ' जगत् जब द्विरूप है तब उसके आश्रव इत्यादि भेद भी नहीं हो सकेंगे। यह कथन भी समीचीन नहीं है / संसार के कारण एवं मुक्ति के हेतु का प्रतिपादन के लिए उन दो के प्रभेद किये गये। वस्तुतः तत्त्व दो ही हैं / 'तत्त्वद्वय्यां नवतत्त्वावतारः'। - वैशेषिक दर्शन के समान जैन तत्त्वज्ञान स्पष्टतः बहुतत्त्ववादी है / जैनों ने तत्त्वज्ञान का जो ढांचा खड़ा किया है उसकी अनेक प्रस्थानों के साथ सहमति के अनेक बिन्दु मिल सकते हैं किन्तु उसका अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व है। जो दूसरों के साथ समानता के कारण समाप्त नहीं हो जाता / सात या नौ तत्त्वों में दो तत्त्व ऐसे हैं जिनका तात्त्विक अस्तित्व है। संक्षेपतः जीव-अजीव नौ पदार्थों के मूल स्रोत हैं। नौ पदार्थ की व्यवस्था का उद्देश्य आध्यात्मिक है। जीव किस प्रकार श्रेणी आरोहण के द्वारा अपने लक्ष्य को