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________________ अवधिज्ञान / 293 'सवंग अंगसंभवविण्हादुष्पज्जदे जहा ओही। ___मणपज्जवं च दव्वमणादो उपज्जदे णियमा / ' अन्तगत और मध्यगत ये दोनों चैतन्य केन्द्रों के गमक हैं। इनमें शंख आदि नामों का उल्लेख नहीं है / भगवती (8/ 103) में विभंगज्ञान के संस्थानों का उल्लेख किया गया है। उसमें अनेक संस्थानों के नाम उपलब्ध हैं, जैसे-वृषभ का संस्थान, पशु का संस्थान, पक्षी का संस्थान आदि / धवला में विभंगज्ञान के क्षेत्र संस्थानों का उल्लेख मिलता है। - 'शुभ संस्थान तिर्यञ्च और मनुष्यों के नाभि के उपरिम भाग में होते हैं, नीचे के भाग में नहीं होते; क्योंकि शुभ संस्थानों का अधोभाग के साथ विरोध है तथा तिर्यञ्च और मनुष्य विभंगज्ञानियों के नाभि से नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं। विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व आदि के फलस्वरूप अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभि के ऊपर शंख आदि शुभ आकार हो जाते हैं। अवधिज्ञान से लौटकर प्राप्त हुए विभंगज्ञानियों के भी शुभ संस्थान मिटकर अशुभ . संस्थान हो जाते हैं।' . ... प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर आचार्यों के सामने विभंगज्ञान के संस्थान की व्याख्या स्पष्ट नहीं रही। दिगम्बर आचार्यों के सामने वह स्पष्ट थी / अवधिज्ञान और विभंगज्ञान दोनों के शरीरगत संस्थान होते हैं। यह मत निर्विवाद है। षट्खण्डागम और धवला में करण या चैतन्यकेन्द्र के बारे में विशद जानकारी मिलती है 'खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा। सिरिवच्छ-कलस-संख-सोत्थिय-णंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवति // ' इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि जीव प्रदेशों के क्षायोपशमिक विकास के आधार पर चैतन्यकेन्द्रमय शरीर प्रदेशों के अनेक संस्थान बनते हैं। पखण्डागम और धवला में उनका उल्लेख किया गया है। नन्दीसूत्र में अन्तगत और मध्यगत के रूप में उनका स्पष्ट निर्देश है / भगवती में प्राप्त विभंगज्ञान के संस्थानों के उल्लेख से यह अनुमान करना सहज है कि अवधिज्ञान से सम्बद्ध चैतन्यकेन्द्रों का निर्देश भी आगम साहित्य में था किन्तु वह किसी कारणवश विलुप्त हो गया। अवधि उत्पत्ति क्षेत्र .. तीर्थंकर, नारकी एवं देवता को अवधिज्ञान सर्वांग से उत्पन्न होता है तथा मनुष्य एवं तिर्यञ्चों के शरीरवर्ती शंख, कमल, स्वस्तिक आदि करण चिह्नों से उत्पन्न होता
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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