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________________ 226 / आर्हती-दृष्टि को प्रकट करते हैं। सूत्र विवरण का विशद रूप से व्याख्यान करनेवाले ग्रन्थ को भाष्य/वार्तिक कहते हैं। वार्तिकभाष्य का ही पर्याय शब्द है। भरत मुनि ने भाष्य को परिभाषित करते हुए कहा—सूत्रानुसारी पदों के द्वारा जिसमें सूत्र के अर्थ एवं स्वनिर्मित पदों का भी विवेचन होता है उसको भाष्य कहा जाता है। कुछ भाष्य नियुक्तियों पर तथा कुछ मूल सूत्रों पर रचित है। आवश्यक, दशवैकालिक आदि सूत्र तथा पिण्डनियुक्ति आदि पर भाष्य लिखे गये हैं। आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गये हैं। विशेषावश्यकभाष्य आवश्यक सूत्र के प्रथम सामायिक अध्ययन पर लिखा गया है। इसमें 3603 गाथाएं हैं। दशवैकालिक भाष्य में 63, उत्तराध्ययन भाष्य में 45, पंचकल्प महाभाष्य में 2574, व्यवहार भाष्य में 4626, निशिथ में 6500, जीतकल्प भाष्य में 2606 गाथाएं हैं / कुछ भाष्य बहुत छोटे हैं। जैसे दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, पिण्डनियुक्तिभाष्य आदि। कुछ विशाल हैं जैसे—व्यवहारभाष्य, बृहत्कल्प, विशेषावश्यकभाष्य आदि / विशेषावश्यक भाष्य __ भाष्य-परम्परा में आवश्यक सूत्र के प्रथम सामायिक अध्ययन पर रचित विशेषावश्यकभाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है / विशेषावश्यक एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें जैन आगमों में वर्णित प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण विषय की चर्चा उपलब्ध है। जैन ज्ञानवाद प्रमाणवाद,आचारनीति, स्याद्वाद, नयवाद, कर्म-सिद्धान्त आदि सभी विषयों से सम्बन्धित सामग्री की समपलब्धि इस ग्रन्थ में सहज ही हो जाती है। इस ग्रन्थ की एक बहत बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जैन तत्त्व का निरूपण इतर दार्शनिक मान्यताओं की तुलना के साथ हुआ है / आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने आगमों की सभी प्रकार की मान्यताओं का जैसा तर्क पुरस्सर निरूपण इस ग्रन्थ में किया है, वैसा अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता / यही कारण है कि जैनागमों के तात्पर्य को ठीक तरह से समझने के लिए विशेषावश्यकभाष्य एक अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। आचार्य जिनभद्र के उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने विशेषावश्यक भाष्य की सामग्री एवं तर्क पद्धति का उदारतापूर्वक उपयोग किया है। उनके बाद लिखा गया आगम की व्याख्या करनेवाला सम्भवतः एक भी ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं है जिसमें विशेषावश्यक भाष्य का आधार न लिया हो। विशेषावश्यकभाष्य तीन हजार छह सौ तीन (3603) गाथाओं में गुम्फित एक महान् आकार ग्रन्थ है। इसमें आगमिक, सैद्धान्तिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक तथ्यों का बड़ी सूक्ष्मता से विश्लेषण किया गया है। विशाल-ज्ञान राशि के संवाहक 'पूर्वो' के अवशेष भी इसमें समुपलब्ध होते हैं। अनेक पारम्परिक मान्यता
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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